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________________ ( ८६ ) हो पाती है तो उसका रति अथवा शोक भाव उसे लौकिक सुख अथवा दुःख की अनुभूति करायेगा । वह प्रेक्षक नाटयगृह में बैठा हुमा भी तत्क्षण के लिए सहृदय न होकर सांसारिक व्यक्ति ही होता है। किन्तु जिस क्षण वही व्यक्ति निजत्व की भावना से ऊपर उठ जाता है, वही क्षण रसदशा का है-रतिजन्य सांसारिक सुख अथवा शोकजन्य सांसारिक दुःख इस रस-दशा की पूर्वस्थिति बन जाते हैं और रस-दशा पन्तिम स्थिति बन जाती है। २." काव्यशास्त्रीय आधार पर लौकिक कारण, कार्य एवं सहकारिकारण काव्य में इसीलिए क्रमशः विभाव, अनुभाव और संचारिभाव कहाते हैं कि वे अब लौकिक क्षेत्र से ऊपर उठकर अलौकिकता के क्षेत्र में जा पहुँचते है। जब तक भय, शोक प्रादि भाव लौकिक कारण मादि से सम्पृक्त है. (चाहे वह घटना-स्थल नाटयगृह भी क्यों न हो), तब तक वे निस्सन्देह दुःखात्मक है, किन्तु विभाव मादि से सम्पृक्त होने के कारण वे सुखात्मक भयानक, करुण प्रादि रसों के रूप में परिणत हो जाते है। ३. भयानक, करुण प्रादि को अपनी परिणति में सुखात्मक स्वीकार करने के लिए काव्याचार्यों का 'साधारणीकरण' नामक सिद्धान्त एक प्रवल साधन है, जिसके बल पर सहृदय असाधारण (विशेष) से साधारण (सामान्य) भावभूमि पर उतर पाता है ।' उसका भय अथवा शोक किसी देश अथवा काल-विशेष से मुक्त हो जाता है। वह अपने समस्त मोह, संकट मादि (से अन्य प्रज्ञान) से निवृत्त हो जाता है। परिणामतः काव्य-नाटकगत कोई पात्र भब उसके लिए अपना विशिष्ट व्यक्तित्व खोकर मानव-मात्र बन जाता है-राम नामक पुरुष पात्र पुरुषमात्र, बन जाता है और सीता नामक स्त्री-पात्र स्त्रीमात्र बन जाता है, और इसका प्रगला परिणाम यह होता है कि सहृदय निजत्व और परत्व दोनों प्रकार के विश्वासों से विनिमुक्त हो जाता है। प्रतः इस प्रकार की परिस्थिति में सहृदय के लिए न तो शृंगार प्रादि रसों द्वारा लौकिक सुखानुभूति स्वीकार की जा सकती है, और न भयानक प्रादि रसों द्वारा लौकिक दु:खानुभूति - यह अवस्था दोनों प्रकार के रसों में अलोकिक सुखात्मिका ही होती है। इस प्रकार अन्त में हम कह सकते हैं कि १. प्रत्येक स्थायिभाव अपरिपक्व अवस्था में लौकिक सुख अथवा दुःख का कारण बनता है, किन्तु परिपक्व अवस्था में केवल अलौकिक सुख का ही। २. भयानक, करुण प्रादि रसों में निस्सन्देह प्रेक्षक भय, शोक प्रादि से जन्य दुःख का अनुभव करता है-किन्तु वह लौकिक दुःख ही होता है-ठीक उसी प्रकार जैसे वह शृंगार, हास्य मादि रसों में रति, हास मादि से अन्य लौकिक सुख का अनुभव करता है। किन्तु यह लौकिक सुख अथवा दुःख रस-दशा की पूर्ववर्ती भवस्था है और रस-दशा उसकी परवर्ती अवस्था है। १. (क) असाधारणस्य साधारणकरणम् इति साधारणीकरणम् । २. xxxभयमेव परं देशालाबनालिगितम्। -हिन्दी अभिनवभारती पृष्ठ ४७० ३. काव्येxxनाटचे चेxxनिविडनिजमोहसंकटतानिवारणकारिणा विभावादि-साधारणीकरणात्मनाxxx। -वही, पृष्ठ ४६४.४६५ ४. तत्र सीताविशदाः परित्यक्तानकतनयाविविशेषा स्त्रीमानवाचिनः । -शरूपक ४/४० वृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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