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नाट्यदर्पणम् [ का० १२३, सू० १७७ निश्चलदृष्टितादयः सूचिताः । उपकारेण मैत्री-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थ्यादयोऽनुभावा गृह्यन्ते । व्यभिचारिणश्चास्य निर्वेद-मति-स्मृति-धृत्यादयः। श्रयं च कैश्चिन्नोक्तः, तेषां सकलक्लेशविमोक्षलक्षणमोक्षपुरुषार्थपराङ्मुखत्वमेव दूषणमिति ॥ [२०] १२२॥
अथ काव्येषु रसनिबन्धनेऽवहितैर्भाव्यमिति उपदिशति[सूत्र १७७]-अर्थ-शब्दवपुः काव्यं रसः प्राणैविसर्पति ।
अजसा तेन सौहार्द रसेषु कविमानिनाम् ॥[२१]१२३॥ शब्दार्थों अभिनेयानभिनेयभेदस्य काव्यस्य वपुः शरीरम् । रसाः पुनः प्राणाः । तैर्विभावोपनिबन्धनकरणोपनीतैः सहृदयहृदयेषु काव्यं विसर्पति । तेन हेतुना कविमम्मन्यान अजसा मुख्यतों रसेषु सौहार्द प्रीतिः । रसाविर्भाविना प्रयत्नेनैवोपनीतस्य, अलंकारस्यापि निबन्धः। स चेतश्चमत्कारोत्येव इति अञ्जसा इत्युक्तम् । यथा
__“कपोले पत्राली करतलनिरोधेन मुदिता,
निपीतो निःश्वासैरयममृतहृद्योऽधररसः । सकल क्लेशोंके छुड़ाने वाले मोक्ष रूप पुरुषार्थसे पराङ्मुख होना ही दूषण है। [इसलिए उन का मत उचित नहीं है। इसका अभिप्राय यह है कि मोक्ष-प्राप्तिके लिए शांतरसको स्थिति प्रावश्यक है । जो लोग शांतरसको नहीं मानना चाहते हैं उनके मतमें मोक्षको सिद्धिका मार्ग ही बन्द हो जाता है। फिर मोक्षको सिद्धि किस प्रकार होगी। इसलिए सकल पुरुषार्थके शिरोमणिभूत मोक्ष पुरुषार्थकी सिद्धिके एकमात्र हेतुभूत शांतरसका मानना अनिवार्य है यह पम्यकारका अभिप्राय है।]॥ [२०] १२२॥
अब काव्यों [ की रचना ] में [ कवियोंको ] रसका समावेश करनेमें विशेष रूपसे सावधान रखना चाहिए इस बातको [अगली कारिकामें] कहते हैं
[सूत्र १७७]--शब्द और अर्थ रूप शरीर वाला काव्य, रस रूप प्राणोंसेही चलता है इसलिए अपनेको कवि समझने वाले [सुकवियों का रसोंके प्रति अनायास प्रेम होता है। [२१] १२३ ।
अभिनेय तथा अनभिनेय भेद वाले काव्यकां शरीर शब्द और अर्थ है। और रस उनका प्राण हैं। विभावोंके समावेश रूप साधनोंसे प्राप्त उन [रसों] के द्वारा काव्य सहृदयों के हक्योंमे प्रवेश पाता है [विसर्पति] । इस कारण अपनेको कवि समझने वाले सुकवियोंका रसोंमें प्रधान रूपसे प्रेम होता है। [मुख्य रूपसे] रसको प्राविर्भूत करने वाले प्रयत्नसे ही प्राप्त होने वाले अलंकारको भी रचना करनी चाहिए। [प्रलंकारोंकी रचनाके लिए अलगसे प्रयत्न सुकवि नहीं करते हैं । रसके सन्निवेशमें जो यत्न करते हैं उसीसे स्वाभाविक रूपसे अलङ्कार भी उनके काव्योंमें पा जाते हैं और वे चिसमें चमत्कार उत्पन्न करते हैं। इस बातके सूचन करनेके लिए [कारिकामें] 'असा' पदका ग्रहण किया है। .. जैसे
हे मानिनि प्रिये ! तुम्हारे गालोंपरकी पत्राली [चन्दनादिके द्वारा बनाई गई सौन्वर्याषायक रेखाएँ, नाराज हो जानेके कारण गालोंके ऊपर रखे गए] हाथोंकी रगड़ से मिट गई [किन्तु तुमने हमें उनके छूनेका अवसर नहीं दिया] अमृत के समान सुन्दर तुम्हारे
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