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________________ का० १६, सू० १६ ] प्रथमो विवेकः [ ४१ 1 वा । तद्वशादवस्थाया अन्तराले यश्छेदः क्रियते सोऽप्यङ्क इत्यर्थः । एतावढङ्क-लक्षणम् । बिन्दुरिति सह बिन्दुना वर्तते । विच्छिन्नविस्तृतार्थस्य उत्तराङ्कम्यानुसन्धानात्मा वृत्तसंक्षेप उत्तरत्र विस्तार्यमाणत्वादुदके तेलबिन्दुरिव 'बिन्दु:' । पूर्वोत्तरयोरङ्कयोरसम्बद्धार्थत्वं मा भूदिति पूर्वाङ्कम्यान्ते बिन्दुनिबन्धनीयः । एक दिनमें न हो सकने वाले दूर-देशगमन आदि श्रथवा बहुत लम्बा होनेके कारण एक दिन में जिसका श्रभिनय किया जाना सम्भव न हो [ उसका ग्रहरण होता है]। उसके कारण जो अवस्थाका बीच में ही विच्छेद कर दिया जाता है वह भी 'प्रङ्क' [का नियामक ] है यह अभिप्राय है। इतनाही का लक्षण है [arfour ] 'सबिन्दु:' [श्रर्थात् ] बिन्दुसे युक्त । [ पूर्व में] विच्छिन्न विस्तृत अर्थका गले में सम्बन्ध दिखलानेवाला कथाका सूक्ष्म भाग, आगे विस्तार पानेके काररण तैलबिन्दुके समान 'बिन्दु' [ कहलाता ] है । आगे-पीछे वाले श्रङ्क परस्पर प्रसम्बद्ध न हो जायें इसलिए पूर्व के अन्त में 'बिन्दु' की रचना करनी चाहिए। अगला श्लोक 'तापसवत्सराजचरित' के तृतीय के अन्त में दिया गया है । श्लोक में मुख्य रूप से वृक्ष और छायाका वर्णन किया है । परन्तु उसमें नायक-नायिका के व्यवहारका समारोप कर एक प्रकारका विशेष चमत्कार उत्पन्न कर दिया गया है। प्रातःकालके समय सूर्यमण्डल बिल्कुल क्षितिजका स्पशंसा करता हुआ होता है । इसलिए उस समय वृक्षोंकी छायाका परिमारण बहुत लम्बा होता है । अर्थात् छाया बहुत दूर तक फैली होती है । उसके बाद ज्यों-ज्यों सूर्य ऊपर चढ़ता जाता है त्यों-त्यों वृक्षकी छाया छोटी होती जाती हैं । अन्तको दोपहर के समय वह बिल्कुल वृक्षके नीचे इकट्ठी हो जाती है । और वृक्ष उस सारीकी सारी छाया को अपने शरीर के भीतर समाविष्ट कर लेता है । वृक्षच्छाया की इन स्थितियोंको कविने मानिनी नायिकाके व्यवहारके सदृश दिखलाया है । मानिनी नायिका जैसे प्रारम्भ में प्रत्यधिक मान करके पति से रूठकर दूर चली जाती है इसी प्रकार वृक्षकी छाया में आरम्भमें अर्थात् प्रातःकाल के समय दीर्घ परिमारणको ग्रहण कर दूर तक फैल जाती है । फिर जैसे मानिनी पश्चात्तापसे पीड़ित होकर लाघवको प्राप्त होती है अर्थात् मानको छोड़कर पतिके पास श्राती है इसी प्रकार ऊपर उठते हुए सूर्यका सन्ताप वृक्षकी छायाको अत्यन्त छोटा बना देता है । और अन्तमें जब नायिका सर्वात्मना नायककी वशवर्तिनी होकर उसकी गोदमें आ जाती है तब नायक उसको जैसे आलिङ्गन पाश में बाँच लेता है इसी प्रकार मध्याह्न में वृक्ष प्रियाके समान अपने ही भीतर सम्पिण्डित छायाको सर्वात्मना अपना लेता है । यह इस श्लोकका भाव है । इस प्रकार इस छाया के व्यवहारपर नायक-नायिका के व्यवहारका श्रारोप कर जिस है उसी प्रकारका व्यवहार नाटकके चतुर्थ अङ्क में नायक-नायिकाका पाया जाता है। इसलिए अगले प्रङ्क विषयका संक्षेप में प्रतिपादक होनेसे इसको 'बिन्दु' के उदाहरण रूपमें यहाँ प्रस्तुत किया गया है। 'बिन्दु' पदका प्रयोग यहाँ 'तेल- बिन्दु' के सादृश्यसे किया जा रहा है । छोटासा बिन्दु जैसे पानी में पड़नेपर बड़े श्राकार में फैलता जाता है इसी प्रकार बिन्द म कथित प्रथं अगले अङ्क में विस्तृत रूपसे फैल जाता है. इसीलिए उसको 'बिन्दु' कहते हैं । इसीका उदाहरण प्रागे देते हैं --- Jain Education International For Private & Personal Use Only श्लोक में कविने वृक्ष प्रौर व्यवहारको सूचित किया www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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