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________________ नाट्यदर्पणम [ का० १६, सू०१६ 'धर्म-कामार्थसत्फलम्' इति सुगमत्वादुपेक्ष्य 'साहोपायदशासन्धि' इत्यस्मादकपदं लज्ञयति[पत्र १६j-अवस्थायाः समाप्तिर्वा छेदो वा कार्ययोगतः । अङ्कः सबिन्दु-दृश्यार्थः चतुर्यामो मुहूर्ततः ॥ १६ ॥ अवस्था वक्ष्यमाणाः प्रारम्भादिकाः फच । तत्रान्यतमस्या अवस्थाया उपकम-निष्पत्तिभ्यां या समाप्तिः । असमाप्तायामप्यवस्थायां कार्यवशेन यो वा छेदः खएडन सोऽङ्कः । कार्य दूराध्वगमनादि एकाहाघटमानं भूयस्त्वादेकाहाशक्याभिनयं शकुन्तला नाटकमें दुष्यन्तके द्वारा शकुन्तलाकी विस्मृति और प्रत्याख्यान भी इसी प्रकारकी घटनाएं हैं जिनकी अन्यथा कल्पना द्वारा कविने अपने नायकके चरितको चमका दिया है । महाभारत में जहाँसे कि शकुन्तलाका पाख्यान लिया गया है- दुष्यन्त एक मत्यन्त लम्पट प्रकृतिका राजा है। जो मधुकरके समान नए-नए पुष्पोंका रसास्वादन करनेका व्यसनी है। इसी प्रसङ्गमें उसने कण्वमुनिके पाश्रममें उनकी अनुपस्थितिमें पहुँचकर शकुन्तलाके साथ सब कुछ किया और उसको अपने महल में बुलानेका वचन देकर भी भूल गया। पर कालिदास ने इसको दुष्यन्तका स्वाभाविक व्यापार न मानकर दुर्वासाके शापको उसका कारण माना है। कालिदासने अपनी इस प्रक्रिया द्वारा इसके कारण रूपमें दुर्वासाके शापकी कल्पना करके दुष्यन्तको न केवल लम्पटताके इस दोषसे ही बचा लिया है बल्कि शकुन्तलाका प्रत्यास्यान करवाकर उसे उच्चकोटिके पादर्शचरित्रके रूपमें चित्रितकर उसको धीरोदात्त नायकका रूप प्रदान कर दिया है ॥१८॥ अङ्कलक्षण पांचवीं कारिकामें 'ख्याताधराजचरितं' प्रादिसे नाटकका लक्षण किया गया था। उसीकी विशेष व्याख्या मागे चल रही है। इसमेंसे केवल 'ख्याताद्यराजचरितं' इस प्रथम पदकी ही विस्तृत विवेचना १८ वीं कारिका तक की गई है। उस नाटक-लक्षणमें दूसरा पद 'धर्मकामार्थसत्फलम्' यह है । परन्तु यह पद बहुत सरल है इसलिए इसकी अलगसे विशेष भ्याख्या न करके, अगले 'साङ्कोपायदशासन्धि' इत्यादिकी विशेष व्याख्या आगे प्रारम्भ करते हैं । इसमें सबसे पहला 'अङ्क पद है इसलिए इस कारिकामें' 'अङ्क' का लक्षण करते हैं। 'धर्मकामार्थसत्फलम्' यह सरल [पद] है इसलिए उसको छोड़कर अगले साङ्कोपायवंशासन्धि' इस [अगले विशेषण] मेंसे [प्रथम] 'अङ्क' पदका लक्षण करते हैं--- [सूत्र १६]- [कार्यको प्रारम्भ प्रावि रूप] अवस्थाको समाप्ति अथवा कार्यवश [प्रसमाप्त अवस्थाका भी] विच्छेव [जो अगले अङ्कको कथाके बीज अथवा] बिन्दुसे युक्त पौर [दो घड़ी अर्थात् ४८ मिनटके] 'मुहूर्त' से लेकर चार प्रहर [बारह घण्टे] तकके दर्शनीय अर्थसे युक्त हो वह 'अङ्क' कहलाता है [यह अङ्कका लक्षण हुआ] । १६ । अवस्था [पदसे] आगे कहे जाने वाली प्रारम्भ [यत्न प्राप्त्याशा प्रादि रूप पाँच हैं। उनमेंसे किसीभी एक अवस्थाका प्रारम्भ और पूर्णता द्वारा समाप्ति [अङ्कको नियामिका होती है । उसको अङ्क में दिखलाना चाहिए] अथवा असमाप्त अवस्थाका भी कार्यवशसे जो बीचमें विच्छेद प्रर्थात् समाप्ति कर दी जाय वह [भो] प्रकका नियामक] है। 'कार्य' पदसे यहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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