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________________ का०१८, स. १५ ] प्रथमो विवेकः [ ३६ दयश्च साररूपाः पदार्थाः अन्ते इति । उदात्ता उत्तमप्रकृतियोग्याः। अनुदात्ता अपि ये रखका भावास्ते सकलस्यापि प्रबन्धस्य रसारोहाथै पुरः पुरो निवेशनीया इति॥१७॥ अथानिबन्धनीयमाह[सूत्र १५]-अयुक्तं च विरुद्धं च नायकस्य रसस्य वा। वृत्तं यत् तत् परित्याज्यं प्रकल्प्यमथवाऽन्यथा ॥१८॥ अयुक्तमनुचित, विरुद्ध विपरीतम् । परित्याज्यमुपेक्षणीयम्। धीरललितस्य धनुचितं परस्त्रीसम्भोगादि, विरुद्धं धीरोद्धतत्वादि । शृङ्गारस्य प्रत्यक्षमालिङ्गनचुम्बनादि अनुचितं, वीभत्सस्तु विरुद्धः । अन्यथेति औचित्येनाविरोधेन वा । यथा नलविलासे धीरललितस्य नायकस्य दोषं विना सधर्मचारिणीपरित्यागोऽनुचित इति कापालिकप्रयोगेण निबद्धः । एवमन्यदप्यूह्यमिति ॥१८॥ बाभ्रव्य प्राविका वृत्तान्त निर्वहण-सन्धिके प्रारम्भमें [समाप्त हो गया है] भोर रस्नावलीकी प्राप्ति मादि सारभूत पदार्थ अंतमें समाप्त हुए हैं। उदात्त [भाव अर्थात् उत्तम प्रकृतिके योग्य [भाव मुख्यरूपसे प्रस्तुत करने चाहिए] और अनुदात्त होनेपर भी जो रजक भाव हैं वे भी सारे नाटकके रसके अधिरोहण [पोषण] केलिए मागे मागे [प्रधान रूपसे] रखने चाहिए ॥१७॥ ___ इस कारिकामें ग्रन्थकारने 'कणे एवमेव' को पुनरुक्तिके बचानेकेलिए प्रयुक्त किए जानेवाले भावाभिव्यक्ति के साधनके रूप में प्रस्तुत किया है । किन्तु कहीं-कहीं उस समयकी सामाजिकसे गोप्य बातको अभिव्यक्त करने के लिए भी इस मार्गका अवलम्बन किया जाता है। नाटक में परित्याज्य ___ पिछली कारिकाप्रोंमें नाटककी रचनामें ग्रहण करने योग्य विशेष बातोंकी ओर ध्यान दिलाया गया था। अब इस कारिकामें नाटक में परित्याग करने योग्य बातोंका उल्लेख करते हुए ग्रन्थकार दिखते हैं प्रब [नाटकमें] न रखने योग्य [बातोंको कहते हैं [सूत्र १५] जो [बात] नायकके अथवा [प्रकृत] रसके लिए अनुचित या विपरीत हो उसको परित्याग कर देना चाहिए [नाटकमें प्रदर्शित नहीं करना चाहिए] अथवा अन्य प्रकारसे उसकी कल्पना कर लेना चाहिए [अर्थात् उसको बदल देना चाहिए ।१८।। प्रयुक्त अर्थात् अनुचित और विरुद्ध अर्थात् विपरीत [अर्थको] परित्लाज्य अर्थात उपेक्षा करने योग्य [समझना चाहिए] । जैसे धीरललित [नायक केलिए परस्त्रीके साथ सम्भोग करना अनुचित है [इसलिए परित्याज्य है] । और धीरोदतत्वादि विरुद्ध है। [इसलिए धीरललित नायकके वर्णनमें उसमें धीरोद्धतत्वके गुण-स्वभाव प्रादिका चित्रण नहीं करना चाहिए। प्रागे रसके लिए अनुचित तथा विरुद्धका उदाहरण देते हैं] प्रत्यक्ष दिखलाया हुमा प्रालिङ्गन-चुम्बन आदि शृङ्गारके लिए अनुचित, तथा बीभत्स [रसका प्रदर्शन शृङ्गाररसके] विरुद्ध है। अन्य प्रकार से [कल्पना कर लेना चाहिए इसका अर्थ यह है कि प्रौचित्यके अनुसार अथवा जिससे वह विरोधी न रहे इस प्रकारसे [कल्पना करले] । जैसे नलविलासमें धीरललित नायककेलिए बिना दोषके सहमिरणीका परित्याग अनुचित है इसलिए कापा. लिकके प्रयोगके कारण [नलने दमयन्तीका परित्याग किया है । इस रूपमें [अन्यथा कल्पना करके] परिणत किया गया है। इसी प्रकार प्रग्य [स्थलोंपर भी] समझ लेना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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