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________________ 'वयं वीची गादु कथमपि न बताः पुनरिमा मियं चिन्ता तस्तरलयति नित्यं किमपि मा। पुरानी शैली के जिन यमकादि प्रधान और चित्रकाव्यों का अर्थ भी समझाना कठिन होता है, इस प्रकार के काव्यों में लोगों की विशेष मभिरुचि से खिन्न होकर रामचन्द्र ने यह श्लोक लिखा है । उसका भाव यह है कि हम इस प्रकार के स्वभावत: दुर्जेय और निकृष्ट रचनाशैली का अवलम्बन करने में असमर्थ हैं । तो लोग हमारे काव्य को पसन्द करेंगे या कि नहीं यही चिन्ता हमें सता रही है । अर्थात् रामचन्द्र ने पुरानी शैली का अवलम्बन करके ही अपने नाटकों की रचना नहीं की है । इसलिए गतानुगतिक केवल पुरानी लकीर के फ़कीर नहीं है लीक लीक गाड़ी चले लोकहि चल कपूत । तीन लीक पर ना चलें शायर शेर सपूत " कवि रामचन्द्र तो शायर भी है और सपूत भी, इसलिए पुरानी लीक पर चलने वाले कैसे हो सकते हैं । सनकी रचनाशली चित्रकाव्य की कठिन शैली से सर्वथा भिन्न सरल और सुबोध शंली है। इसीलिए उनकी रचना विशेष रूप से रसवती बन पड़ी है। इसी बात को उन्होंने निम्न लोक में दिखलाया है प्रबन्धानापातु नवभरिणतिवेदग्ध्यमधुरानु ववीन्द्रा निस्तन्द्राः कति नहि मुरारिप्रभृतयः । ऋते रामान्नान्यः किमुत परकोटो घटयितु र सान् नाटयप्राणान् पटुरिति वितर्को मनसि नः। मर्थात पवीन कल्पना और उक्तियों से मधुर काव्यों की रचना करने वाले मुरारि आदि न जाने कितने कदि हुए हैं। किन्तु नाटय के प्राण भूत रसों का चरमोत्कर्ष तक पहुंचाने में समर्थ, रचना को प्रस्तुत करने वाला तो रामचन्द्र के अतिरिक्त कोई दूसरा कवि दिखलाई नहीं देता है। यह तो मचन्द्र ने अपनी स्वतंत्र रचनाशली का प्रतिपादन किया है। किन्तु दूसरे कवियों के पद-पदार्थ का माहरण करने वाले कवियों को उन्होंने बड़ी कटु मालोचना की है। उनकी अनेक कृतियों में इस म हरण-प्रवृत्ति को निन्दा पायी जाती है। उनमें से कुछ उदाहरण निम्न कवित्वं परस्तावत् कलङ्कः पाठशालिनाम् । भन्यकाव्यः कविस्वं तु कलकस्यापि चूलिका ।। [नाटयदर्पण-वियति १-११] यह लोक नाट पदपण विवृति के मादि में लिखा है। इसी प्रकार इस विवृति के अन्त में भी उन्होंने लिखा है परोपनीतशब्दार्थाः, स्वनाम्ना कुतकीर्तयः । लिबद्वारोऽधुना सेन, को नौ क्लेशमवेष्यति ? माजकल तो लोग दूसरों के शब्द प्रों को लेकर अपने नाम से प्रसिति प्राप्त कर लेते है। जब हम दोनों अर्थात् नाटयदर्पणकार रामचन्द्र और पुणचन्द्र के उस कष्ट को, जो उन्होंने इस प्रय तथा अन्य अन्य की रचना में उठाया है कोन समझ सकेगा? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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