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का० १६७, सू० २५२-५३ ] चतुर्यों विवेकः
[ ३७७ स्निग्धाः' सुहृदः । 'आदि' शब्दाद् धीरोदात्त-धीरललित-धीरप्रशान्ता गृहान्ते। एपां 'वियोगिनां' विप्रलम्भशृङ्गारवतां औचित्यानतिक्रमेण लिंग्यादयो यथासंभवं सन्धि विग्रहेण, विग्रह सन्धिना च विशेषेण दूषयन्ति विनाशयन्ति, विप्रलम्भ तु विनोददानेन विस्मारयन्ति इति 'विदूषकाः'। उचितश्च लिंगी देवताना, ब्राह्मणस्य शिष्यः, राज्ञां तु शिष्यवर्जास्त्रयः । एवं वणिगादेरपीति ।। [१५] १६८ ॥
अथेपामेव धीरोद्धतादीनां सहायानाह[सूत्र २५३]-युवराज-चमूनाथ-पुरोधः-सचिवादयः।
__ सहाया एतदायत्तकव ललितः पुनः ॥[१६] १६६॥ __ 'आदि' शब्दादाटविक-सामन्तादयस्तापसादयश्च गृह्यन्ते । एते च केचिदर्थकामयोः सहायाः। केचिद् धर्मसहायाः। तथा सहायायत्तसिद्धिरेव धीरललितः । सहायत्र्यापारश्च नायकत्र्यापार एव, एतावद पत्वान्नायकस्य । धीरोद्धतादयस्तु स्वअन्य-उभयसिद्धयः इति । [१६] १६६॥
कहते हैं
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[सत्र २५२ }-धीरोद्धत आदि नायकोंके (स्निग्धाः अर्थात् मित्र और वियोगियों के प्रौचित्यके अनुसार लिगो [अर्थात् ब्रह्मचारी या सन्यासी प्रावि बाह्मण राजजीवी तथा शिष्य पावि विदूषक होते हैं। [१५] १६८ ।।
स्निग्ध' अर्थात् मित्र । [धीरोद्धत पदके साथ जुड़े हुए] 'मादि' शबसे धोरीवास, पीरललित तथा धीरप्रशांत नायकोंका भी ग्रहण होता है। इनके 'वियोगी' प्रति विप्रलमभंगारयुक्त होनेपर यथासम्भव लिंगो प्रादि [विदूषक] औचित्य के अनुसार होते हैं। पाने विदूषक शब्दका निबंचन दिखलाते हैं] सन्धिको विग्रहोत्पादनके द्वारा तथा विग्रहको सम्बि. अनन द्वारा विशेष रूपसे दूषित अर्थात् विनष्ट करते हैं और विप्रलम्भको मनोरंजन प्रवाम करनेके द्वारा विनष्ट करते हैं इसलिए 'विदूषक कहलाते हैं। देवतामोंके लिए [लिगी अर्थात्] बलबारी [या संन्यासो], ब्राह्मणके लिए शिष्य, प्रौर राजाके लिए शिष्यको छोड़कर शेष तीनों विद्यक उचित हैं । इसी प्रकार वणिग् प्रादि भी [प्रौचित्यानुसार विदूषक समझ लेने चाहिए ॥ [१६] १६८ ॥
प्रब मागे किन्हीं धीरोदत मादि [नायकों] के सहायकोंका वर्णन करते हैं
[सूत्र २५३] --युवराज, सेनापति, पुरोहित और सचिव मादि [इन धोरोक्त मादि नायकोंके सहायक होते हैं । और धोरललित [नायक] तो इन [सहायकों के प्रायत्त-सिद्धि वाला ही होता है । [अर्थात् स्वयं कार्य नहीं करता है। सहायकोंके द्वारा ही धोरललित नायकके सारे कार्योका सम्पादन होता है । [१७] १६६।
_ 'प्रादि' शम्से वनाध्यक्ष [प्राविक] तथा सामन्त और तापस प्राविका ग्रहण होता है। इसमेंसे कुछ अर्थ तया काम [को सिति] में सहायक होते हैं । कुछ धर्म [को सिडि] में सहायक होते हैं और धीरललित [नायक] सहायायत्तसिद्धि ही होता है । सहायकोंका व्यापार नायकका ही व्यापार माना जाता है। क्योंकि [धीरललित] नायक इसी सहायायतसिवि के रूपमें होता है। महायायत्तसिद्धि धोरललित नायकको छोड़कर] धीरोद्धत प्रावि शेिष तीन प्रकारके नायक] तो (१) स्वायत्तसिडि, (२) अन्यायत्तसिद्धि और (३) उभयायतसिद्धि
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