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नाट्यदयणम् । का०५८, सू० ६२ (२) अथ प्रसंग :---
[सूत्र ६२]--प्रसंगो महतां कीर्तिः कीर्तिः संशब्दनम् । यथा वेणीसंहारे पष्ठेऽङ्के--
युधिष्ठिर :--[मुखं प्रक्षाल्य उपस्पृश्य च एष तावनलाञ्जलि-र्गाङ्ग याय गुरवे प्रपितामहाय शान्तनवे। अयमपि पितामहाय विचित्रवीर्याय। [सास्त्रम् । तातस्य अधुनावसरः। अयमपि तत्रभवते स्वर्गस्थिताय गुरवे सुगृहीतनाम्ने पित्रे देवाय पाण्डवे ।" इत्यादि ।
केचिदप्रस्तुत तार्थवचनं प्रसंगमिच्छन्ति । यथा वेणीसंहारे षष्टेऽङ्के."युधिष्ठिर :--[द्रौपदी प्रति]
स कीचकनिपूदनो बक-हिडिम्ब-किर्मीरहः, मदान्धमगधाधिपद्विरदसन्धिभंगाशनिः । गदा-परिघशोभिना भुजयुगेन तेनान्वितः ।
प्रियस्तव ममानुजोऽर्जुनगुरुर्गतोऽस्तं किल ॥" अत्र मायात पस्विना राक्षसेन व्यलीकभीमबधंकथनात् युधिष्ठिरस्याप्रस्तुतः शोकः ।
(२) अब प्रसंग नामक विमर्श सन्धिके द्वितीय प्रङ्गका निरूपण करते हैं]-- [सूत्र ६१]-महान [पूर्वज] लोगोंका कीर्तन करना 'प्रसंग' [नामक प्रङ्ग कहलाता है। कीति अर्थात् कथन करना । जैसे देरणीसंहारके छठे अङ्कमें--
"युधिष्ठिर-मुखको धोकर और प्राचमन करके अपने पूर्वजोंको जलाअलि देते हुए क्रमशः उनका कीर्तन करते हुए कहते हैं] सबसे पहले यह जलाअलि गंगातनय पूज्य प्रपितामह शान्तनुकेलिए है। यह दूसरी प्रमाअलि पितामह विचित्रवीर्यकेलिए है। [रोते हुए] अब पिताजीकी बारी पाती है। अच्छा यह तीसरी जलाअलि] स्वर्गलोकवासी पूज्य और मुगृहीतनामा पिता पाण्डुकेलिए है ।" इत्यादि।
इस वचन में जलाञ्जलि देते समय युधिष्ठिर द्वारा अपने पूर्वज महापुरुषोंके नामोंका कोलन किया गया है अतः यह 'प्रसंग' नामक मामर्शसन्धिके द्वितीय अङ्गका उदाहरण है।
कोई लोग प्रस्तुत प्रर्थके कथनको 'प्रसंग' मानते हैं। जैसे वेणीसंहारके छठे अंकमें"युधिष्ठिर-[द्रौपदीके प्रति]- .
कीचकको मारने वाला, बकासुर, हिडिम्ब और किर्रर [प्रावि राक्षसोंका नाश करने वाला, मदमत्त मगषराज [जरासन्ध] रूप हाथीकी सन्षियोंको भग्न करने वाला, बोर गया तप परिघ [नामक प्रस्त्रों से शोभित उन [अपूर्व शक्तिशाली भुजानोंसे युक्त, तुम्हारा प्रिय, मेरा छोटा भाई और अर्जुनका ज्येष्ठ भ्राता [अर्थात भीमसेन, इन मुनिजी महाराज कथनके अनुसार समाप्त हो गया है।
यहां भावटी तपस्वी [दुर्योधनके पक्षपाती] रामसने, झूठ-मूठ भीमके मारे जानेकी बात कहकर युषित करको अप्रासंगिक शोकमें गल दिया है [मतः यह प्रसंग नामक मङ्गका उदाहरण है।
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