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________________ ( ७८ ) (१) निःस्पृहता ( इच्छा के प्रभाव ) को 'शम' कहते हैं - निःस्पृहत्वं शमः । (पृष्ठ ३३०) काम, क्रोध, लोभ, मान, माया आदि से रहित, विषयसंलग्नता से विमुक्त, प्रक्लिष्ट चित्तवृत्ति रूप 'शम' नामक स्थायिभाव शान्त रस [ के रूप में अभिव्यक्त] होता है : 'काम-क्रोध-लोभ- मान-मायाधनुपरक्त-परोन्मुखता -विवर्जिताऽक्लिष्टचेतो रूपशमस्थायी शान्तो रसो भवति । ( पृष्ठ ३१७) (२) दरिद्रता, व्याधि, अपमान, ईर्ष्या, भ्रम, श्राक्रोश, ताडन, इष्टवियोग, परविभूतिदर्शन प्रदि ( सांसारिक) क्लेशों के कारण विरसता ( वैराग्यभाव ) तथा तत्त्वज्ञान को निर्वेद नामक संचारिभाव कहते हैं-निर्वेदस्तत्वधीः क्लेशैर्वैरस्यम् । ( पृष्ठ ३३१ ) (३) जन्म-मरण से युक्त संसार से, भय तथा वैराग्य से, जीव, भजीव (परमात्मा श्रीर प्रकृति), पाप-पुण्य आदि तत्त्वों तथा मोक्ष के उपायों के प्रतिपादक शास्त्रों के विमर्शन से शान्त रस की उत्पत्ति होती है । (पृष्ठ ३१७ ) स्पष्टतः उक्त कथनों में 'शम' को स्थायिभाव माना गया है और 'निर्वेद' को संचारिभाव। रामचन्द्र गुणचन्द्र से पूर्व मम्मट ने निर्वेद को स्थायीभाव भी माना था भौर संचारिभाव भी तथा 'निर्वेद' स्थायिभाव से शान्त रस की अभिव्यक्ति स्वीकृत की थी। किन्तु इन आचार्यों ने मम्मट के इस मन्तव्य को स्वीकृत करते हुए कहा है कि एक ही भाव को इन दोनों नामों से अभिहित करना स्ववचन विरोध है । किन्तु वस्तुतः मम्मट को भी वही अभीष्ट है जो इन दोनों श्राचार्यों को है। उन्होंने सभी स्थायिभावों तथा संचारिभावों की सूची प्रस्तुत करके इन्हें 'लक्षण नाम प्रकाश' समझ कर इनका लक्षण प्रस्तुत नहीं किया । किन्तु उनके शान्त रस के प्रख्यात उदाहरण "अहो वा हारे वा कुसुमशयने वा दृषदि वा" से निस्सन्देह यही प्रतीत होता है कि निर्वेद नामकस्थायिभाव तत्वज्ञान से उत्पन्न भाव है, न कि सांसारिक क्लेशों के कारण उत्पन्न वैराग्य भाव से । हाँ, यह दूसरा रूप इसे संचारिभाव की ही संज्ञा देगा, स्थायिभाव की नहीं । मम्मट की इसी धारणा को मम्मद के टीकाकारों ने भी समझा था भौर स्पष्टतः लिखा था स्थायी स्यात् विषयेष्वेष तत्वज्ञानात् भवेद् यदि । इष्टानिष्ट वियोगाप्तिकृत स्तु व्यभिचार्य सौ ॥ का० प्र० ( बालबोषिनी टोका) पृष्ठ ११६ किन्तु फिर भी, रामचन्द्र- गुणचन्द्र ने निर्वेद और शम का स्वरूप मलग-अलग दिखाकर विषय की स्पष्टता में पूर्ण सहयोग दिया है, और सम्भवतः इनके ग्रन्थ से प्रथवा इसी के अनुरूप किसी १. (क) निर्वेदस्य x x x प्रथमम् x x x उपदानं व्यभिचारित्वेऽपि स्थायिताभिधानार्थम् । का० प्र० ४ । ३४ (ख) निर्वेदस्थायिभावोऽस्ति शान्तोऽपि नवमो रस। । Jain Education International वही ४ । ३५ २. मम्मटस्तु व्यभिचारिकथनप्रस्तावे निर्वेदस्य शान्तरसं प्रति स्थायितां, 'प्रतिकूल विभावादिपरिग्रहः' इत्यत्र तु तमेव प्रति व्यभिचारितां च व वारणाः स्वचनविरोधेन प्रतिहतः इति । - हि० ना० ब० पृष्ठ ३३२ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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