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________________ १२ ] नाट्यदर्पणम् [ का० १, सू०१ 'वाचम्' नाटकाचां, 'उपास्महे' परिशीलयामः । 'नित्यम' इति अत्रापि सम्बभ्यते । सततापरिशीलिताभिनेयवाचो हि कुतो नामौचित्यवादिनो भवेयुः । - रूप्यन्ते अभिनीयन्ते इति रूपाणि नाटकादीनि । अनभिनयानां रूपशब्दाप्रतीतेः सामान्यनिर्देशेऽपि वाचोऽभिनेयत्वं लभ्यते । भूरिभेदत्वेऽप्यभिनेयवाचो 'द्वादभिः ' इति प्रस्तुतप्रकरणापेक्षम् । विश्वम्' इति पूर्ववत् , समवकारादीनां देव-दैत्यचरितव्युत्पादकत्वात् । 'पथि' इति यशःसम्पदुपायत्वात कृत्यं लक्षात । नायक-प्रतिनायकयोहि नयानयफलोपदशनेन नाटकादिभि-दु दोन्तचेतसां न्यायादनपेते कृत्ये प्रवृत्तिर्व्यवस्थाप्यते । अत्रापि व्याख्याने श्रद्धापरत्वेन नमस्कारपरतैव श्लोकस्य । व्याख्येय-व्या. ख्यानयोरेककत कत्वख्यापनार्थमयमेव श्लोको विवरणस्याप्यादावधीत इति ॥१॥ होने पर भी मूल रूपमें] लक्षणोंकी रचनाको दृष्टिसे 'जैनी' [वारणी कही जा सकती है। [यहाँपर यह शङ्का हो सकती है कि नाटकायिके लक्षण तो भरतादिके ग्रन्थों में सर्वत्र पाए जाते हैं फिर उनको जिन-प्रणीत कैसे कह सकते हैं। इसका उत्तर देनेकी दृष्टि से अगली रक्तिमें लिखते हैं कि सर्वत्र उपदिष्ट अर्थ लक्षण न हो ऐसी बात नहीं है। [क्योंकि मूल रूपसे जिनों द्वारा प्रणीत लक्षणोंको हो] नवीन दृष्टिवाले बादके [भरत प्रादि मुनि संक्षेप .और विस्तारके द्वारा उनको [फिर कर सकते हैं। 'वाचम्' अर्थात् नाटकादि रूप [वारणी] को। 'उपास्महे' अर्थात् हम परिशोलित निरूपित करते हैं। प्रथम व्याख्यामें भी 'नित्यं' पदका सम्बन्ध 'चतुर्वगंफलां' और 'उपास्महे' दोनों पदोंके साथ किया गया था। इसी प्रकार इस द्वितीय व्याख्याने भी दोनोंके साप सम्बन्ध माना है। इसी बात को प्रागे लिखते हैं कि 'नित्यम्' यह पद पहले चतुर्वर्गफला के साथ एक बार अन्वित हो चुका है किन्तु दुबारा यहां [उपास्महेके साथ] भी अन्वित होता है। 'उपास्महे के साथ 'नित्यम्' पदके सम्बन्धसे यह अभिप्राय निकलता है कि नाटक प्रादिका निरन्तर परिशीलन करने से ही नाटकके लक्षणादिका निरूपरण ठीक तरहसे किया जा सकता है । अन्यथा] अभिनय वारणी [अर्थात् नाटकादि का निरन्तर अनुशीलन न करने वाले [नाटकलक्षणकार अर्थात् नाट्यशास्त्रके विषयपर ग्रंथ लिखने वाले विद्वान्] प्रौचित्य को प्रतिपादन करने वाले [अर्थात् नाटकादिमें उचित नियमोंके प्रतिपादक ] कैसे हो सकते हैं ? नाटकादिका निरन्तर परिशीलन न करनेवाले विद्वान् अनुभवहीन होने के कारण नाटकादिके लक्षण और प्रौचित्य आदिका प्रतिपादन नहीं कर सकते हैं। इसलिए हमने अर्थात् इस ग्रन्थके प्रणेता रामचन्द्र और गुणचन्द्रने नाटकोंका सतत परिशीलन करके अनुभव प्राप्त करनेके बाद ही इस ग्रन्थकी रचनाका साहस किया है यह ग्रन्थकारका निगूढ़ अभिप्राय है। मागे ग्रंथकार रूपक शब्दको व्युत्पत्ति द्वारा यह दिखलाते हैं कि नाटकों के लिए 'रूपक शब्दका प्रयोग क्यों होता है। रूपित अर्थात् अभिनय द्वारा प्रदर्शित किये जाते हैं, इसलिए नाटकादि 'रूप' या रूपक कहलाते हैं। जिनका अभिनय नहीं होता है उनको 'रूप' शब्दसे प्रतीति न होनेके कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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