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का०२, सू०२ ] प्रथमो विवेकः
[ १३ अथ लक्षणस्य विषयं प्रतिजानीते-- (सूत्र २)-अभिनेयस्य काव्यस्य भूरिभेदभृतः कियत् ।
कियतोऽपि प्रसिद्धस्य दृष्टं लक्ष्म प्रचक्ष्महे ॥२॥ यहाँ वाणीका सामान्य निर्देश होनेपर भी उससे अभिनेय [नाटकादि रूप वारणी] का हो ग्रहण होता है । अभिनेय [नाटकादि रूप वाणोके बारहसे अधिक बहुतसे भेद होनेपर भी 'द्वादशमिः' बारह यह पद] प्रस्तुत प्रकरणके अनुसार कहा गया है । "विश्वस्' यह पद पूर्व [माया के समान [यहाँ इस द्वितीय व्यायामें भी समुदायको दृष्टिसे एकवचनमें प्रयुक्त हुषा है। क्योंकि नायके भेद रूप समस्कार प्रादिमें देव तथा दैत्य प्रादिके चरित का प्रदर्शन होनेसे नाट्य समस्त विश्वसे ही सम्बन्ध रखता है] । 'पथि' यह [पद] यश: सम्पादनकै उपाय होनेसे उत्सम कार्योंको बोधित करता है। नायक और प्रतिनायकके धर्म और अधर्म के फलोंको दिखलाकर नाटकादि दुर्दान्तचित्त [प्रमियों के व्यवहारको भी न्याय्य मार्गमें व्यवस्थित करते हैं।
इस [दूसरी] व्याख्यामें भी श्रद्धापरक होनेसे यह श्लोक नमस्कार सूचक ही समझना त्राहिए । व्याख्येय [भूल कारिकानाग और व्याल्या [अर्थात् इस विवरण दोनोंके कर्ता अभिन्न होनेसे इसी श्लोकको विवरण के प्रारम्भमें भी दे दिया गया है। यहाँपर यह मूल ग्रंथको कारिकाके रूपमें पाया है। अतः उसकी व्याख्या की गई है। पहली बार विवरणके मङ्गलश्लोकके रूपमें दिया गया था । अतः उसकी व्याख्या यहाँ नहीं की गई थी] ॥१॥ प्रतिपाद्य विषय
प्रथम श्लोकमें मङ्गलाचरण करने के बाद अब द्वितीय कारिकामें ग्रन्थकार अपने ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषयका दिग्दर्शन कराते हैं। जैसा कि ग्रन्थ के नामसे ही स्पष्ट है नाट्यसे सम्बन्ध रखने वाले लक्षरणों प्रादिका प्रतिपादन ही इस ग्रन्थका मुख्य एवं प्रधान प्रतिपाद्य विषय कहा जा सकता है। इन लक्षण त्रादिका प्रतिपादन भी ग्रन्थकार पूर्वप्रणीत भरतमुनि के 'नाट्यशास्त्र' प्रादिके अाधारपर करेंगे । इसीलिए मूल कारिकामें कहा है.---'दृष्टं लक्ष्म प्रचक्ष्महे' अर्थात पूर्व-प्रतिपादित लक्षणों के प्राधारपर ही हम लक्षण आदि लिखेंगे । अन्तर इतना है कि भरतमुनिके समान नाट्यके सारे विषयोंका और सारे भेदोंका प्रतिपादन न कर के कुछ चुने भेदों और विषयोंका ही लक्षण करेंगे और वह भी बहुत विस्तारके साथ नहीं अपितु संक्षेपमें करेंगे। इसी दृष्टिसे कारिकामें 'कियतोऽपि' और 'कि यत् लक्ष्म प्रचक्ष्महे' दो जगह 'वियत' पदका प्रयोग किया गया है । पहली जगह 'कियतोऽपि' का अभिप्राय यह है कि सारे नाट्यभेदोंका नहीं अपितु केवल कुछ भेदोंका ही लक्षण करेंगे। दूसरी जगह "कियत्' पदका अभिप्राय यह है कि विस्तारपूर्वक लक्षण न करके कुछ थोड़ासा ही संक्षिप्त लक्षण करेंगे। इसी बात को आगे लिखते हैं
अब लक्षरण अर्थात्] शास्त्र के विषयका प्रतिपादन [को प्रतिज्ञा करते हैं---
सूत्र २]-बहुत प्रकारके भेदोंसे युक्त अभिनेय-काव्य [अर्थात् नाय] मेंसे कुछ प्रसिद्ध भेदों] के [भरत नाट्यशास्त्र आदिमें विस्तारपूर्वक पूर्व-दृष्ट कुछ अर्थात् संक्षिप्त] लक्षण हम [अपने इस ग्रन्थमें आगे] कह रहे हैं ।२।
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