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________________ १४ ] नाट्यदर्पणम् [ का० २, स०२ 'अभिनेयस्य' वाचिक-माणिक-सात्विक-आहायर भिनयः प्रत्यक्षीभवनयोग्यस्य । सूत्रकाराभिप्रायापेक्षं चैतत् , तेन रस-भाव-नायक-नायिकादिलक्षणस्य अभिनेयं प्रति प्रवृत्तस्य अनभिनेयव्यापित्वेऽपि न विरोधः । 'काव्यस्य' वर्णनात्मनः शब्दार्थग्रन्थनस्य कविव्यापारस्य । 'भूरीन्' रसप्रधानान् नाटकादीन, अप्रधानरसांश्च दुर्मिलित-श्रीगदित-भाणी-प्रस्थान-रासकादीन् 'भेदान्' विभनि । 'कियत्' इति अनान्तरीयकस्य रङ्गसन्ध्यन्तरालादिलक्षणस्य परिहारेण वक्ष्यमाणप्रबन्धद्वादशकप्रथननान्तरीयकं कतिपयं लक्ष्मेति योगः। ‘कियतोऽपि' लक्षणविधावभिप्रेतस्य । तेन कोहल: शीतलक्ष्माणः साटकादयो न लक्ष्यन्ते । लक्षणीयबाहुल्येऽपि हि यावत्येव भागे लयितुः श्रद्धा तावाने व लक्ष्यते । कियतोऽपि च 'प्रसिद्धस्य' रसप्राधान्यादखिललोकरञ्जकतया ख्यातस्य नाटकादेः । 'दृष्ट' पूर्वमुनिप्रणीतनाट्यलक्षणपौर्वापर्यपरामर्शेन उपयुक्ततया निश्चितम् । एवं च स्वमनीषिकानिरासेन लक्षणस्योपादेयत्वमुत्तम् । लक्षति अभिने यादनभिनेयाच्च कियतोऽपि व्यवच्छिनत्तीति 'लक्ष्म' लक्षणम् । 'चक्ष्महे' सारासारोपादानहानाभ्यां संक्षेप-विस्तराभ्यां च प्रकर्षेण ब्रूमहे । एवं चापरप्रणीतलक्षणोत्यकर्षेण निष्प्रयोजनत्वमपास्तमिति ।।२।। 'अभिनेय [काव्य] के' अर्थात् वाचिक, प्राङ्गिक, सात्त्विक [अर्थात् मानस और प्राहार्य [अर्थात् वेष-भूषात्मक चार प्रकारके] अमिनयोंके द्वारा प्रत्यक्ष होने योग्य [नाव्य] का [लक्षरण कहेंगे] । यह बात सूत्रकारके अभिप्रायको दृष्टि से कही है । इसलिए रस भाव नायक-नायिका प्रादिके जो लक्षण अभिनेय [काव्य की दृष्टिसे किये गए हैं उनके अनभिनेय अर्थात् श्रव्य-काव्य में पाए जाने पर भी विरोध नहीं होता है। 'काव्यका' अर्थात् वर्णनात्मक शब्द और अर्थके ग्रन्थन रूप कविके व्यापारका । 'बहुतसे' अर्थात् रस-प्रधान नाटक प्रावि, और गौण रस वाले दुर्मिलित, श्रीगदित, भारणी, प्रस्थान और रासक आदि भेदोंको धारण करने वाले [यह 'भूरिभेदभृतः' पदका प्रर्थ हुआ] । 'कियत्' इससे अनावश्यक रङ्ग सन्ध्यन्तराल प्रादिके लक्षणोंको छोड़कर पागे कहे जाने वाले बारह प्रकारके प्रबन्धोंकी रचनाके लिए पावश्यक 'कुछ' लक्षणोंको कहेंगे यह सम्बन्ध [या अभिप्राय] है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि भरतमुनि-प्रणीत नाट्यशास्त्र आदिमें रङ्गशालाके निर्माण प्रादिके विषयको बहुत सूक्ष्म विवेचन करते हुए अत्यन्त विस्तारके साथ प्रतिपादन किया गया है । प्रकृत प्रन्थकारने उस विषयको बिल्कुल छोड़ दिया है । उन्होंने अपने क्षेत्रका बहुत विस्तार न करके सीमित क्षेत्रको ही अपना विषय बनाया है उसकी दृष्टि से जितना भाग अत्यन्त आवश्यक समझा गया है उसीका प्रतिपादन यहाँ किया है । और वह भी अभिनेय कान्यके केवल कुछ भेदोंके सम्बन्धमें ही लिखा गया है। बारह प्रकारके अभिनेयकाव्यके भेदोंकी विवेचना ही इस ग्रन्थमें की गई है। अतः ग्रन्थकारका क्षेत्र उन भेदोंकी विवेचना तक ही सीमित है। इस बातको आगे लिखते हैं "कियतोऽपि' अर्थात् ग्रन्थ [लक्षणविधि] में अभिप्रेत फुछ छोड़े-से [भेदों] का [ही लक्षण करेंगे] । इसलिए [नाज्यशास्त्रके भरतमुनिसे भी प्राचीनतर प्राचार्य] कोहल प्रणीत साटक [सट्टक] मादिका लक्षण यहां नहीं किया गया है । लक्षणीय [अर्थात् अभि नेय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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