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________________ का० ३-४, सू०३ ] प्रथमो विवेकः [ १५ अथ व्यक्तिभेदानुद्देशे, नियतं न शक्यते लक्षणमाख्यातुमिति तानुदिशति[सूत्र ३]-नाटकं प्रकरणं च नाटिका प्रकरण्यथ ।। व्यायोगः समवकारो भाणः प्रहसनं डिमः ॥३॥ काव्यों का बाहुल्य [बहुतायत] होनेपर भी जितने भागमें ['लक्षयितुः' लक्षण करने वाले अर्थात्] ग्रन्थकारको श्रद्धा [इच्छा] है उतने ही भागके [अर्थात केवल बारह भेवोंके ही लक्षण करते हैं। और "कियतोऽपि च प्रसिद्धस्य' कुछ प्रसिद्ध अभिनेय-काव्यों का प्रति रसकी प्रधानता होनेके कारण समस्त जगत्के पाल्हादके कारण रूपसे प्रसिद्ध नाटक प्रादिका [ही लक्षण करेंगे] । 'दृष्ट' अर्थात् [भरत प्रादि पूर्वमुनियों के द्वारा रचे गए नाव्य लक्षणों के तारतम्य [पौर्वापर्य का विचार करके उपयुक्ततया निश्चय किए हुए [लक्षणको कहेंगे । इस प्रकार ['दृष्टं' पदके प्रयोग द्वारा पूर्वाचार्योंके लक्षणोंके उपादेयता-तारतम्यकी विवेचना करके लक्षण कहेंगे इस बातको सूचित करनेसे अपनी कल्पनामात्रके निरास द्वारा लक्षणोंको उपादेयताका प्रतिपादन किया है। [प्रागे 'लक्षणम्' शब्दका अर्थ करते हैं, जो अभिनेय पौर कुछ अनभिनेयोंसे भी पृथक् करता है वह लक्षण है ['समानासमानजातीयव्यवच्छेदो हि लक्षरणार्थः'] इसके अनुसार समानजातीय अन्य अभिनेय काव्योंसे और असमानजातीय अनभिनेय कायोंसे भिन्न करने वाले ही नाटक प्रादिके लक्षण होते हैं। यह बात इस पंक्तिसे सूचित को है ] । 'प्रकृष्टरूपसे कह रहे हैं' अर्थात् [पूर्वाचार्योंके लक्षणों से सार भागको ग्रहण करके और प्रसार भागको त्याग कर और संक्षेप तथा विस्तारके द्वारा [अर्थात् जहाँ पूर्वाचार्योने बहुत संक्षेप कर दिया है वहाँ कुछ विस्तार करके और जहां उन्होंने अधिक विस्तार किया है वहाँ संक्षेप करके] प्रकृष्टरूपसे कह रहे हैं। इस प्रकार अन्योंके रचे लक्षणोंसे उत्कर्ष दिखलाकर [अपनी रचनाके निष्प्रयोजनत्वका निराकरण कर दिया है [अर्थात् उपयोगिता प्रदर्शित करदी है] ॥२॥ रूपकों के भेद जैसाकि ग्रन्थकार प्रथम मङ्गल-श्लोकमें संकेत कर चुके हैं इस ग्रन्थमें बारह प्रकारके रूपक-भेदोंका निरूपण किया जायगा। इसलिए अगली दो कारिकाओंमें ग्रन्थकार उन बारह भेदोंके नाम गिनाते हैं। इस नाम गिनानेकी प्रक्रियाको शास्त्रीय परिभाषामें 'उद्देश' शब्दसे कहा जाता है । 'उद्देश' शब्दका अर्थ 'नाममात्रेण वस्तुसङ्कीर्तनं उद्देशः' अर्थात् नाममात्रसे वस्तुका कथन करना 'उद्देश' कहलाता है यह किया गया है। प्रायः शास्त्रोंमें उद्देश लक्षण और परीक्षा इन तीन प्रकारके उपायोंके द्वारा अपने विषयका प्रतिपादन किया जाता है । उस पद्धतिका ही अवलम्बन करके ग्रन्थकार यहाँ रूपक-भेदोंका नाममात्रसे कथन या 'उद्देश' इन दो कारिकाओं में कर रहे हैं । फिर आगे उनके लक्षण प्रादि करेंगे। [सूत्र ३]–१ नाटक और २. प्रकरण, तथा ३. नाटिका, ४. प्रकरणी एवं ५. ग्यायोग, ६. समवकार, ७. भारण, ८. प्रहसन, ६. डिम । १०. उत्सृष्टिकाङ्क, ११. ईहामृग, १२. वीयो [ये बारह रूपकके भेद होते हैं। उनमेंसे नाटक प्रकरण नाटिका और प्रकरणी ये] चार [भेद कशिको, सात्वती प्रारभटी तथा भारती रूप] सब वृत्तियोंसे युक्त होते हैं और बादके पाठ [रूपक भेद] कशिकोवृत्तिसे रहित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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