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का० १५, सू० १२ ]
प्रथमा विवेकः
[१२] – एकाङ्गिरसमन्याङ्गमद्भूतान्तं रसोर्मिभिः । अलङ्घितमलङ्कार-कथाङ्गैर गलद्रसम्
॥१५॥
एको नायकौचित्येनान्यतमो श्रङ्गी प्रधानरसो यत्र । अन्ये अङ्गिरसादपरे रसा श्रङ्ग' गौणा यत्र । नाटकं हि सर्वरसं, केवलमेको अङ्गी, तदपरे गौणाः । अद्भुत एव रसो अन्ते निर्वहणे यत्र । यतः शृङ्गार-वीर - रौद्रैः स्त्रीरत्न- पृथ्वीलाभ-शत्रुक्षयसम्पत्तिः । करुण-भयानक- वीभत्सैः तन्निवृत्तिः । इति इयता क्रमेण लोकोत्तरासम्भाव्यफलप्राप्तौ भवितव्यमन्ते अद्भुतेनैव । अपि च नाटकस्यासाधारणवस्तुलाभः फलत्वेन यदि न कल्प्यते तदानीं क्रियायाः फलमात्रं 'किलिदस्त्येवेति किं तत्रोपायव्युत्पादनक्लेशेन । 'रसोर्मिभी' रसाधिक्येन 'अलङ्घित' अविच्छिन्नम् । न नाम रसपरतया कथा शरीरमन्तर येत् ।
से ही करना चाहिए। क्योंकि लम्बा वर्णन रसको तिरोभूत कर देता है ।
इस कारिका में 'स्वल्पपद्यं' शब्द विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है । वैसे 'स्वल्प' शब्द एक साधारण शब्द है । उसका प्रथं 'थोड़ा' होता है । इसलिए 'स्वल्पपद्य' का अर्थ 'थोड़े पद्यों वाला' यह होना चाहिए। किन्तु ग्रन्थकारने यहाँ उसकी जो ब्याख्या की है उसमें उन्होंने 'स्वरूप' पदको सु + अल्प दो भागों में विभक्त कर 'सु' का अर्थ 'सुष्ठु प्रसन्नार्थ प्रसिद्धशब्द, तथा 'अल्प' का अर्थ परिमित किया है। इसलिए यह शब्द विशेष रूपसे ध्यान देने योग्य है । यहाँ तक चौदहवीं कारिकाको व्याख्या समाप्त हो गई । किन्तु यह विषय प्रभी पूर्ण नहीं हुआ है । मगली कारिकामें भी इसी विषयका वर्णन किया गया है ।
[ सूत्र १२] - जिसमें एक रस प्रधान और अन्य रस श्रप्रधान हों ग्रन्तमें प्रद्भुत रस [ का निवेश ] हो किन्तु रसाधिक्यसे [ कथाभाग ] विच्छिन्न न होने पांवे, साथ ही अलङ्कार या कथा आदि [के प्राधिक्य ] से रसका विच्छेद भी न होने पावे [इस इन सब बातोंका ध्यान रखते हुए ही नाटककी रचना करनी चाहिए] । १५ ।
नायकके प्रौचित्यके अनुसार कोई एक रस जिसमें प्रधान हो [ यह 'एकाङ्गिरस' का अर्थ है ] । 'अन्य' अर्थात् प्रधान रससे भिन्न रस जिसमें प्रङ्ग प्रर्थात् गौरण हो । नाटक में [वैसे तो ] सारे रस होते हैं किन्तु एक रस प्रधान और उससे भिन्न सब गौण होते हैं । अन्तमें अर्थात् निर्वहरण- सन्धिमें प्रद्भुत रस ही होना चाहिए। क्योंकि शृङ्गार, वीर, रौद्र रसोंके द्वारा स्त्रीरत्न प्रथवा राज्यादिका लाभ और शत्रुके विनाश प्रादिको सिद्ध होती है । प्रौर करुण, भयानक तथा वीभत्सके द्वारा [प्रतिनायकको ] उन [स्त्रीरत्न राज्य आदि प्राप्ति ] की निवृत्ति होती है । इस लिए इस प्रकारसे [सभी रसोंका नाटक में उपयोग होता है और ] लोकोतर सम्भाव्य फल प्राप्ति [के दिलाने] में अन्तमें अद्भुत रस होना चाहिए। [ इसकी सिद्धि के लिए दूसरा हेतु यह भी है कि ] यदि श्रसाधाररण वस्तुकी प्राप्तिको नाटकका फल न माना जाय तो प्रत्येक क्रियाका कुछ-न-कुछ फल तो अवश्य होता ही है फिर उसके लिए उपायोंका अवलम्बन करने से क्या लाभ? रसकी लहरोंसे प्रर्थात् रसके प्राधिक्यसे [जिसकी कथावस्तु ] लंघित अर्थात् विच्छिन्न न हो। रस- प्रधान होकर कभी कथाके स्वरूपको विच्छिन न करे ।
१.
न किञ्चित् ।
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