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नाट्यदर्पणम् [ का० ४८, सू० ६५ भीमसेनोऽपि दुर्योधन प्रति युधिष्ठिरस्यानुनयमगृहन्नाह"कोऽयमनेकविधापकारकारिणः कौरवानुद्दिश्या स्याभावः" इति ।
केचिद् धूननमरतिमाहुः। तच्च रोधेनैव संगृहीतमिति । (३) अथ रोधः
[सूत्र ६५] रोधोऽतिःअतिः खेदो व्यसनमिष्टरोधाद् रोधः । यथा देवीचन्द्रगुप्त - "राजा [चन्द्रगुप्तमाह]
त्वदुःखस्यापनेतु सा शतांशेनापि न क्षमा । ध्रुवदेवी-[सूत्रधारीमाह]
- हज्जे इय सा ईदिसी अज्ज उत्तस्स करुणापराहीदा। [हजे ! इय सा ईदशी आर्य पुत्रस्य करुणापराधीनता । इति संस्कृतम्] सूत्रधारी-देवि पंडति चंदमंडलाउ वि चुडुलीउ किं पतु करिम्ह ।। [देवि ! पतन्ति चन्द्रमण्डलादपि उल्काः। किमत्र कुर्मः। इति संस्कृतम] राजा-त्वय्युपारोपितप्रेम्णा त्वदर्थे यशसा सह ।
परित्यक्ता मया देवी जनोऽय जन एव मे ॥ हुए [बंधुनों की रक्षा करने रूप [उनको मनानेका कोई अपूर्व अनुनय प्रकार [प्रवशित किया जाता है।"
[ युधिष्ठिर के द्वारा इस प्रकार दुर्योधनको छुड़ानेके लिए प्रेरित किए जाने पर ] भीमसेन भी दुर्योधनके प्रति युधिष्ठिर के अनुनयको अस्वीकार करते हुए कहते हैं -
अनेक प्रकारसे अपकार करनेवाले कौरवोंके प्रति प्रापको यह दया कैसी है ?"
इसमें भीमसेन युधिष्ठिरके शान्तिवचन या अनुनयका तनिक अनादर-सा करते हैं अतः यह धूनन' नायक अङ्गका उदाहरण है।
कोई [प्राचार्य] अरति खेद या दुःख को 'धूनम' कहते हैं। [किन्तु यह उचित नहीं है। क्योंकि वह तो रोध [नामक अगले अङ्ग] में ही संगृहीत हो जाता है। (३) रोध
अब रोध [नामक प्रतिमुखसंधिके तृतीय प्रङ्गका लक्षण करते हैं][सूत्र ६५]-परति [का नाम] 'रोध' है।
प्ररति अर्थात् खेद या दुःख [प्रकट करना] इष्टके प्रवरोधके कारण रोध' [कहलाता] है । जैसे देवीचन्द्रगुप्तमें राजा [चंद्रगुप्तसे कहता है]
"वह तुम्हारे दुःखको शतांशमें भी दूर करने में समर्थ नहीं है। ध्र वदेवी [सूत्रधारीसे कहती है]--- अरे ! आर्यपुत्रको यह कैसी करुणा-पराधीनता है। सूत्रधारी--देवि ! चन्द्रमण्डलसे भी उल्कापात होता है । इसमें हम क्या करें।
राजा--तुममें अपने प्रेमको स्थिर करनेवाले मैंने तुम्हारे लिए यशके साथ-साथ देवी का भी परित्याग कर दिया। और यह प्रजा] जन तो मेरे [प्रजा] जन ही हैं [उनके परिस्यागको तो बात ही क्या है।
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