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________________ का० ४८, सू० ६५ ] प्रथमो विवेकः [ १२६ ध्रुवदेवी-अहं पि जीविदं परिच्चयंती पढमयरं य्येव तुम परिच इस्स।" अहमपि जीवित परित्यजन्ती प्रथमतरमेव त्वां परित्यक्ष्यामि।। इति संस्कृतम्] अत्र स्त्रीवेषनिह ते चन्द्रगुप्त प्रियवचनैः स्त्रीप्रत्ययात् ध्रुवदेव्या गुरुमन्यु. सन्तापरूपस्य व्यसनस्य सम्प्राप्तिः । यथा वा सत्यहरिश्चन्द्रे-- "राजा--देवि ! अवलम्बस्व मद्वचनम् । अत्रैव तिष्ठ । अशिक्षित पादचारा न शक्ष्यति भवती क्रमितुदर्भाङ्करविधुरासु वनवसुन्धरासु । सुतारा--जं भोदि तं भोदु । अहं गमिस्सं । [यद् भवति तद् भवतु । अहं गमिष्यामि । इति संस्कृतम् ] राजा-[कुलपति प्रति] भगवन् ! त्यजत् हेम्नो लक्षं चतुरुदधिकाठची च वसुधां, सुधाम्भोभिः स्नानादपि समधिकां प्रीतिमभजम् । सवत्सामेतां तु प्रवसनपरां वीक्ष्य दयितां, इदानीं मन्येऽहं ज्वलदनललीढं वपुर दः ॥ इति । ध्र वदेवी-मैं भी अपने जीवनका परित्याग करती हुई उससे पहले ही तुमको छोड़ दूंगी। यहाँ चंद्रगुप्तके स्त्री-वेषमें छिपे होनेसे ध्र वदेवीको [उसमें वास्तविक स्त्री होनेके विश्वासके कारण [अपनेसे अन्य स्त्रीके प्रति राजाकी प्रासक्तिको देखकर ] अत्यंत दुःख और संताप रूप व्यसनकी प्राप्ति हो रही है [इस लिए रोष नामक अंगका उदाहरण है] । ध्रुव स्वामिनी मगध नरेश रामगुप्त की पत्नी हैं। रामगुप्त बड़ा कापुरुष है। शत्रुके दबावसे वह अपनी प्रियतमाको शत्रुको देने के लिए तैयार हो गया था। चन्द्रगुप्त इस अपमान को सहन नहीं कर सका । उसने स्वयं स्त्रीका वेष धारणकरके शत्रुके पास जाकर अपमानका बदला लेने का निश्चय किया। इस प्रसङ्गमें स्त्री-वेषमें उपस्थित उसी चन्द्रगुप्तके साथ राजा रामगुप्तका वार्तालाप हो रहा है । ध्रुव स्वामिनी को यह रहस्य पता नहीं है। इसलिए वह स्त्री बेषधारी चन्द्रगुप्तको दूसरी स्त्री समझकर दुःखी हो रही है। इसीलिए इसे रोधके उदाहरण रूप में प्रस्तुत किया गया है। अथवा जैसे सत्यहरिश्चंद्र' में-- राजा--देवि ! मेरी बात मान जायो । तुम यहीं रहो । [माज तक कभी पैदल न चलनेके कारण तुम कुश-अंकुरोंसे भरी हुई वनभूमियोंमें नहीं चल सकोगी। सुतारा-चाहे जो हो मैं तो [अवश्य] चलूगी । राजा--[कुलपतिके प्रति भगवन् ! लाखों स्वर्ण-मुद्रानों, और चारों समुद्र रूप काञ्चीको धारण करनेवाली वसुन्धरा का परित्याग करते हुए मैंने सुधा-सलिलसे स्नान करनेकी अपेक्षा भी अधिक प्रानन्दका अनुभव किया था। किंतु बच्चेके सहित इस प्रियतमा रानीको [वनमें पैदल चलनेको उद्यत देखकर इस समय मुझे ऐसा लग रहा है मानो मेरा यह सारा शरीर प्रागसे प्रालिगित हो रहा है। . इस श्लोकमें राजा हरिश्चन्द्र जब अपना राज-पाट सब-कुछ देकर जा रहे हैं उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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