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________________ का० ४८, सू० ६४. ] प्रथमो विवेकः [ १२० वीरादिरसप्रधानेष्वर्थफलेषु रूपेषु पुनरुत्साहादिसम्पद्विषयो नृ-स्त्रियोरीहाव्यापारो विलासः। यस्तु वेणीसंहारे भानुमत्या सह दुर्योधनस्य दर्शितो रत्यभिलाषरूपो विलासः, स नायकस्य तादृशेऽवसरे ऽनुचितः । यदाह सन्धि-सन्ध्यङ्गघटनं रसबन्धव्यपेक्षया। न तु केवलशास्त्रार्थस्थितिसम्पादनेच्छया ।।इति । (२) अथ धूननम् [सूत्र ६४]-धूननं साम्यनादरः। साम्नि अनुनये अनादरो मनागनातिः । नमोऽल्पार्थत्वात् । यथा पार्थविजये. चित्रसेनेन संयते दुर्योधने सतियुधिष्ठिरः- "वत्स भीमसेन ! अयस कालः शूराणां खिन्नानां यत्र बन्धुषु। __ आपद्गतपरित्राणम, अपूर्वोऽनुनयक्रमः ।। नहीं अपितु प्रकृत रसके अनुकूल स्त्री-पुरुषको इच्छा यह अर्थ करना चाहिए । वीररस-प्रधान नाटक में 'विलास' अङ्ग में वीररसके अनुकूल स्त्री-पुरुषोंकी इच्छाका वर्णन कर वीररसको सम्पुष्ट करना चाहिए। और उसीके अनुकूल ग्रन्थ मङ्गोंकी भी रचना करना चाहिए । भट्टनारायणने इस सिद्धान्तको नहीं समझा है, इसीलिए वे इस प्रकारको भूल कर बैठे हैं। इसी बातको ग्रंथकार अगले अनुच्छेदमें निम्न प्रकार लिखते हैं वीर प्रादि रसप्रधान अर्थवाले रूपकोंमें तो उत्साह प्रादिका पोषण करनेवाला स्त्रीपुरुषका इच्छा रूप व्यापार विलास [पदसे गृहीत] होता है। इसलिए 'वेणीसंहार' में जो सुयोधनके साथ भानुमतीका रत्यभिलाष दिखलाया है वह उस प्रकारके [युटकी तैयारी करने योग्य] समयमें नायकके लिए अनुचित है । जैसाकि [ध्वन्यालोककारने] कहा है कि-- __ संधि तथा संधियोंके मङ्गोंको रचना रसप्रयोगके अनुसार करनी चाहिए। केवल शास्त्रको मर्यादाकी रक्षाको इच्छासे हो नहीं करनी चाहिए। इस वचनसे ऐसा भ्रम हो सकता है कि शास्त्र-स्थिति और रस-स्थितिमें विरोष हो सकता है । वेणीसंहारकारने शास्त्र-स्थितिका पालन करनेकी इच्छासे ही दुर्योधन भोर भानुमतीके रत्यभिलाषका वर्णन प्रतिमुखसन्धि के विलास प्रङ्गमें किया है । किन्तु यहाँ अन्धकारने यह दिखलाया है कि वेणीसंहारकारने शास्त्र-स्थितिको ही नहीं समझा है । उन्होंने जो रस्यभिलाषका वर्णन किया है वह शास्त्रीय मर्यादाके अनुकूल नहीं प्रनिकूल किया गया है। (२) धूनन प्रबधूनन [नामक प्रतिमुखसन्धिके द्वितीय मङ्गका लक्षण करते हैं]-- [सूत्र ६४] -शांति-वचनोंका अनादर करना धूनन [कहलाता है। साम अर्थात् अनुनय [वचनों] में मनावर अर्थात् पोड़ी-सी मनास्था [पूनन कहलाता है] । मके प्रल्पार्थक होनेसे [मनागनाहतिः यह मर्च किया है। जैसे 'पार्षविजय' में चित्रसेनके द्वारा दुर्योधनके पकड़ लिए जानेपरयुधिष्ठिर [कहते हैं]-हे बस्स भीमसेन! यह वह समय [मा गया है जबकि अपने मोंते नाराज हुए रोका मापत्ति पड़े Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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