________________
७२ ]
नाट्यदर्पणम्
का० ३१, सू०६२ अथ मायभेदम:
[त्र २६] -सहसेष्टार्थलाभश्च
'सहस' इत्याकस्मिकत्वेन सभ्यानां चमत्कार हेतुत्वमाह । यथा 'रत्नावल्यां' सागरिकायां पाशावलम्बनप्रवृत्तायां वासवदत्तेति मन्यमानो राजा पाशाद्विमोचयति, तदा तदुक्त्या सागरिकां प्रत्यभिज्ञायाह
"कयं मे प्रिया सागरिका ? अलमलमतिमात्रेण ।" इत्यादि । अत्रान्यत्प्रयोजनं चिन्तितं, वैचित्र्यकारि च प्रयोजनान्तरं सम्पन्नम्।
यथा वा 'नलविलासे', विदूषक-कापालिकनियुद्धनिवारणायोद्यतस्य राज्ञो दमयन्तीप्रतिकृतिलाभ इति ।।
अन्यस्मिन्नुपाये चिन्तिते सहसोपायान्तरप्राप्तिर्यथा नागानन्दे जीमूतवाहनस्य शंखचूडादप्राप्तवध्यपटस्य कञ्चुकिना वासोयुगलार्पणमिति ।
अब [चार प्रकारके पताकास्थानों से प्रथम भेदको कहते हैं
[सूत्र २६]-सहसा [माकस्मिक रूपसे प्राप्त होनेके कारण सम्योंके लिए चमत्कारअनक] इट वस्तुको प्राप्ति का वर्णन प्रथम प्रकारका पताकास्थान कहलाता है ।
'सहसा' इस [प] से माकस्मिक रूपसे प्राप्त होनेके कारण सभ्योंके चमत्कारका हेतुत्व सूचित किया है । जैसे रत्नावली में [तृतीय अंकमें] सागरिकाके [अपने गलेमें] फांसी लगानेमें प्रवृत्त होनेपर राजा उदयन उसको [अपनी मुख्य रानी] वासवदत्ता समझकर फांसी से छुड़ाते हैं । उस समय उसकी उक्तिको सुनकर सागरिकाको पहिचान कर कहते हैं कि___ "अरे यह तो मेरी प्रिया सागरिका है । हटो हटो यह प्रतिसाहस मत करो।" इत्यादि ।
यहाँ राजा उदयनने वासवदत्ताको पाशसे छुड़ाने रूपमें] कुछ दूसरा ही प्रयोजन सोचा था किन्तु [ सभ्यों के लिए और स्वयं राजाकेलिए भी ] चमत्कार-जनक [प्राकस्मिक मचिन्तित रूपसे सागरिकाकी प्राप्ति रूप] कुछ और ही [प्रयोजन अर्थात् कार्य हो गया।
अथवा जैसे नलविलासमें विदूषक और कापालिककी लड़ाईको बचानेकेलिए उद्यत [अर्थात् लड़ाई बचानेका प्रयत्न करते समय] राजा [नल] को [विदूषकके बगल में से निकल कर गिरी हुई] दमयन्तीकी तस्वीरकी प्राप्ति ।
___ इससे पूर्व कारिकामें पाए हुए 'अर्थ' शब्दकी व्याख्या करते समय कर्म और करण रूप दो प्रकारको व्युत्पत्ति मान कर 'अर्थ' शब्द के 'प्रयोजन' तथा 'उपाय' दो अर्थ किये थे। 'सहसेष्टार्थलाभश्च' इस प्रथम पताकास्थानके लक्षण में भी 'अर्थ' शब्दके ये दोनों प्रर्थ अभिप्रेत हैं । इनमें से 'प्रयोजन' रूप प्रर्थको लेकर दो उदाहरण दे दिए । अब प्रागे 'उपाय' रूप पर्थको लेकर भी एक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं
अन्य उपायके सोचनेपर सहसा [अचिन्तित प्राकस्मिक रूपसे ] मन्य उपायकी प्राप्ति [का उदाहरण] जैसे नागानन्दमें जीमूतवाहनको शंखचूड़से वध्यके [धारण करने योग्य] वस्त्रोंकी प्राप्ति न होनेपर [अकस्मात् प्राकर] कंचुकीके द्वारा [लाल रंगके कपड़े के जोड़ोंका समर्पण [इर वस्तुको पूर्ति करता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org