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का० ३१, सू०३० ] प्रथमो विवेकः अथ द्वितीयमाह
सूत्र ३०]-श्लिष्टसातिशया च वाक् । श्लिष्टा प्रकृतसम्बद्धा, सातिशया अत्यद्भुतार्था । यथा 'रामाभ्युदये' द्वितीयेऽके सीतां प्रति सुग्रीवस्य सन्देशोक्तिः
"बहुनात्र किमुक्तेन पारेऽपि जलधेः स्थिताम् ।
अचिरादेव देवि त्वामाहरिष्यति राघवः ॥" अत्र 'पारेऽपि जलधः' इत्यतिशयोक्तिरपि सीतां प्रति तथैव वृत्तत्वात् कृतसम्बद्धा । अत्र चातिशयोक्तिमात्राच्चिन्तितात् प्रयोजनादपरं तथैव सीताहरणं प्रयोजनं सम्पन्नमिति सामान्यलक्षणम् ।
इस प्रकार प्रथम प्रकारके पताकास्थानके तीन उदाहरण ग्रन्थकारने यहाँ प्रस्तुत किए हैं। इन तीनों उदाहरणोंमें नायकके द्वारा प्रचिन्तित, अत्यन्त आकस्मिक रूपसे इष्ट प्रयोजन या इष्ट उपाय रूप इष्ट अर्थकी प्राप्ति हो गई है। इसलिए ये तीनों उदाहरण प्रथम प्रकारके पताकास्थानके हुए। अब द्वितीय प्रकारके पताकास्थानका वर्णन प्रारम्भ करते हैं । द्वितीय पताकास्थानमें सहसा इष्ट की प्राप्ति नहीं होती है किन्तु प्रकृत प्रकरण से सम्बद्ध कोई ऐसी अद्भुत बात किसी पात्रके मुखसे निकल जाती है जिसका प्रागेके कथाभागमें अद्भुत प्रभाव दिखलाई देता है। इसीका वर्णन मागे करते हैं।
अब द्वितीय पताकास्थान को कहते हैं
[सूत्र ३०] -[श्लिष्टा] प्रकृत-सम्बद्ध और [सातिशया] अद्भुतार्थक वचन [द्वितीय प्रकारके पताकास्थान कहलाते हैं।
'ग्लिष्टा' प्रकृत [प्रकरण] से सम्बद्ध और 'सातिशया' अर्थात् अत्यन्त अद्भुत अर्थवाली [वारणीका आकस्मिक प्रयोग द्वितीय प्रकारका पताकास्थान कहलाता है] । जैसे रामाभ्युदयमें द्वितीय अङ्कमें सीताके प्रति सुग्रीवको [निम्नलिखित] सन्देशोक्ति [में पाया जाता है
"अधिक क्या कहा जाय, समुद्र के पार स्थित होनेपर भी हे देवी! रामचन्द्रजी आपको शीघ्र ही ले प्रावेंगे।"
यहाँ 'पारेऽपि जलधेः स्थिताम्' समुद्र-पार रहनेपर भी यह अतिशयोक्ति के रूपमें ही कहा गया] भी सीताके प्रति उसी प्रकार घटित होनेसे प्रकृतसे सम्बद्ध है। और यहाँ अतिशयोक्तिमात्रसे विचारित प्रयोजनसे भिन्न उसी प्रकार [समुद्रपारसे सीताका ग्राहरण रूप प्रयोजन हो गया। यह [पताकास्थानका] सामान्य लक्षण भी इसमें समन्वित हो जाता है।
इसी प्रकार की उक्ति भवभूतिके उरत्तरामचरित्र में भी पाई जाती है। वसिष्ठ का प्रजाको प्रसन्न रखनेका सन्देश पाकर रामचन्द्रजी अष्टावक्र मुनिसे कहते हैं
स्नेहं दयां च सौख्यं च यदि वा जानकीमपि ।
आराधनाय लोकस्य मुञ्चतो नास्ति मे व्यथा ॥ __ अर्थात् लोकके पाराधन के लिए प्रजाकी प्रसन्नताके लिए मुझे स्नेह, दया, सौख्य और यहां तक कि स्वयं जानकीको भी छोड़ देने में कोई कष्ट नहीं होगा। यहां यह बात तो पति
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