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अथ तृतीयमाह
नाट्यदर्पणम्
[ सूत्र ३१] द्वयर्था च
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'वाकू' इति इह, उत्तरत्र च सम्बध्यते । द्वयर्था श्लेषादिवशात् प्रस्तुतोपयोग्यर्थान्तरो पक्षेपिणी । यथा
[ का० ३१, सू० ३१
'प्रीत्युत्कर्षकृतो दशामुदयनस्येन्दोरिवो दीक्षते ।'
अत्र हि सन्ध्यावर्णनप्रयोजनेन काव्यं प्रयुक्तं, सागरिकां प्रति उदयनाभिव्यक्तिलक्षणं प्रयोजनान्तरं सम्पादयति । तथा च सागरिका
'अयं सो राया उदयणो, जस्स श्रहं ता देण दिरणा ।' इति । [श्रयं स राजा उदयनो यस्याहं तातेन दत्ता । इति संस्कृतम् ] | शयोक्ति रूपमें ही कही गई थी किन्तु उसके बाद शीघ्र हो रामचन्द्र ने अपने स्नेह, दया भौर सौख्य के साथ जानकीका भी परित्याग कर दिया है ।
इस द्वितीय पताकास्थानके लक्षरण में 'लिष्ट' पदका प्रयोग किया गया है किन्तु उसका अर्थ केवल 'प्रकृत से सम्बद्ध' इतना ही है । यहाँ 'लिष्ट' पद दो अर्थके वाचक शब्दका ग्राहक नहीं है । प्रगले तृतीय पताकास्थान में 'श्लिष्ट' श्रर्थात् द्वद्यथंक पदके प्रयोग द्वारा चिन्तित अर्थ से भिन्न प्रयोजन या उपाय रूप अन्य श्रर्थकी प्रतीति होती है । इस भेदके कारण तृतीय पताकास्थान पहिले और दूसरे दोनों पताकास्थानोंसे भिन्न है । पहिले और दूसरे किसी भी पताकास्थान में 'लिष्ट' अर्थात् द्वयर्थक पदका प्रयोग नहीं होता है। तृतीय पताकास्थानका आधार द्वघर्थक शब्द ही होता है। इसी कारण उसको प्रागे भिन्न रूप में कहते हैं ।
अब तीसरे पताकास्थानको कहते हैं
[सूत्र ३१] दो श्रथवाली [वारणीका प्रयोग करके चिन्तित अर्थसे अन्य अर्थकी प्रतीति जिसमें होती है वह तृतीय पताका स्थान कहलाता है ] ।
[द्वितीय पताकास्थानके लक्षरणमें कहा. हुआ] 'वाक्' यह पद यहां [तृतीय पताकास्थान के लक्षण में] और प्रागे [चतुर्थ पताकास्थानके लक्षरण में] भी सम्बद्ध होता है। 'दो भ्रयंवाली' अर्थात् श्लेषादिके कारण प्रस्तुतके उपयोगी दूसरे अर्थका बोध करनेवाली वाणी जैसे [रत्नावली नाटिका प्रथम श्रङ्कके प्रायः प्रन्तमें वैतालिक राजाकी स्तुति करते हुए कहते हैं कि ] — "उदीयमान चन्द्रमाको नयनानन्ददायिनी किरणोंके समान [राजा लोग उदयन राजाके चरणोंकी ओर] देख रहे हैं।"
यहाँ संध्या-वर्णनके प्रयोजनसे काव्यका [लोकका ] प्रयोग किया गया है किन्तु वह सागरिका के प्रति उदयन [राजा रूप अर्थ] की अभिव्यक्ति रूप दूसरे प्रयोजनको सम्पादित, कर रहा है। इसी लिए [ इस इलोकको सुनने के बाद] सागरिका [ कहती है कि ]
[ अच्छा ] ये वे राजा उदयन हैं जिन्हें पिताजीने मुझे [ अपने संकल्प द्वारा ] दिया था ।
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इस श्लोक में सन्ध्याका वर्णन प्रकृत है । उसमें 'उदयनस्य' यह पद श्लिष्ट अर्थात् दो प्रथका बोधक है । सामान्य रूपसे उसे नवोदित चन्द्रमाके लिए प्रयुक्त किया गया है किन्तु उससे उदयन राजाका भी बोध हुआ है । प्रतः यह तृतीय पताकास्थान है ।
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