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का० ३०, सू० २८ ] प्रथमो विवेकः अथ पताकाप्रस्तावात् पताकास्थानकानां सामान्यलक्षणं भेदांश्चाह-- [सूत्र २८]----चिन्तितार्थात्परप्राप्ति-कृते यत्रोपकारिणी।
पताकास्थानकं तत्त चतुर्दा मण्डनं क्वचित् ॥३०॥ 'अर्थः' कर्म-करणव्युत्पत्त्या प्रयोजनमुपायश्च । अध्यवसितात्प्रयोजनादुपायाच अन्यस्य प्रयोजनस्योपायस्य च प्राप्ति यतिवृत्ते उपकारिणी, प्रधानफलोपकारिका तदितिवृत्तं पताकास्थानकम् । उपकारित्वमात्रसाम्यात् पताकास्थानस्य तुल्यं पताका. स्थानकम् । न पुनः पताकास्थानमेव । अत एव तु-शब्दः पताकास्वरूपात् व्यतिरेक द्योतयति । मण्डनमिति एकमपि पताकास्थान नाट्य-काव्यालङ्करणं किं पुन? त्रीणि चत्वारि वा। एतद्विहीनं रूपकं न कार्यमित्यर्थः । क्वचिदिति अन्तरा. न्तरा, न तु पताकावन्निरन्तरम् । अत एव पताकातो भिद्यते ॥३०॥ पताकास्थान--
इस प्रकार पताकाका प्रकरण होनेसे [उससे मिलते हुए] पताका स्थानके सामान्य लक्षण और उसके भेदोंको कहते हैं
[सूत्र २८]-~सोचे हुए अर्थ [अर्थात् प्रयोजन तथा उपाय] से दूसरे [प्रयोजन या उपाय रूप] अर्थको [अनायास] प्राप्ति जहाँ इतिवृत्त [नाख्यान-वस्तु] में उपकारिणी हो जाती है वह [नाटकमें निरन्तर न रहकर] कहीं-कहीं होने वाला चार प्रकारका 'पताकास्थान' [नाट्य रूप काव्यका शोभाजनक] सौन्दर्याधायक होता है ।३०।।
'अर्थ' शब्दसे [अध्यंते इति अर्थः] इस प्रकारको कर्ममें व्युत्पत्तिसे प्रयोजन, तपा [अर्थ्यते येन स अर्थः] इस प्रकारको करण व्युत्पत्तिसे उपाय [दोनों 'अर्थ' कहलाते हैं। निश्चित किये हुए प्रयोजन तथा उपायसे भिन्न प्रयोजन तथा उपायकी प्राप्ति जहां कथाभाग की उपफारिणी अर्थात् प्रधान फलको [सिद्धि में] उपकारिणी होती है वह कथाभाग [इतिवृत्त) 'पताकास्थानक' कहलाता है। पहले कहे हुए पताका-नायकके समान प्रधानकै] उपकारकत्वमात्रको समानताके कारण पताकाकी अर्थात् पताका नायकके स्थान अर्थात् स्थितिके तुल्य होनेसे यह 'पताकास्थान' [कहलाता है। [पताका नायक की स्थिति रूप न होनेसे] 'पताकास्थानीय' ही नहीं है। [अर्थात् पताकास्थान पताका स्वरूप नहीं किन्तु प्रधानोपकारकत्वको समानताके कारण पताकाके तुल्य है। इसीलिए कारिकामें पाया हुआ] तु-शब्द पताकाके स्वरूपसे [पताकास्थानके भेदको सूचित करता है । 'मण्डनम्' इससे [एकवचन] से [यह सूचित किया है कि एक स्थानपर प्रयुक्त] । एक भी पताकास्थान नाट्यकाव्यका सौन्दर्याधायक हो जाता है फिर दो, तीन, चार [प्रकारके कहे जाने वाले अथवा अधिक स्थानोंपर प्रयुक्त हुए पताकास्थानों का तो कहना ही क्या है। [नाटकमें विशेष रूपसे पताकास्थानका प्रयोग अवश्य करना चाहिए इसके बिना रूपक [की रचना को नहीं करना चाहिए यह अभिप्राय है। [कारिकामें पार हुए] 'क्वचित्' इस [पद से [यह सूचित किया है कि नाटकमें] बीच-बीचमें [कहीं-कहीं ही पताकास्थानोंका प्रयोग करना चाहिए] पताका [नायक] के समान निरन्तर [उसकी उपस्थिति प्रावश्यक नहीं है इसीलिए [पताका स्थान] पताका [नायक से भिन्न [माना जाता है] ॥३०॥
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