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का० ६५, सू० ११५ | प्रथमो विवेकः
[ १६१ चारुदत्तः-भिक्षो ! किं तव बहुमतम् ? भितु:--अणिच्चत्तणं पेक्खिय पव्वजा बहुमाणे संवुत्ते ।
[अनित्यत्वं प्रेक्ष्य प्रव्रज्याबहुमानः संवृत्तः । चारुदत्तः--सखे दृढोऽस्य निश्चयः। तत् पृथिव्यां सर्वविहारेषु कुलपतिः क्रियताम् ।
शालिकः--एवमेतत्। चारुदत्त.--प्रियं नः। वसन्तसेना--संपद जीविद मिह ।
[साम्प्रतं जीवितास्मि । इति संस्कृतम्] । शालिक:- स्थावरकस्य किं क्रियताम् ? चारुदत्तः--सुभृत्योऽयमदासोऽस्तु ।' शालिक:-एवं, यथा आह आर्यः।" अत्र साम्ना दानेन अन्यैश्च प्रियहितैरुक्तिः । अनयोः पृथगप्युक्तिनिबध्यते ।
इदप्यगमवश्यं निबन्धनीयमिति । (१२) अथ पूर्वभाव:---
[सूत्र ११५]–प्राग्भावः कृत्यदर्शनम् । यथा रत्नावल्याम्-- "योगन्धरायणः-एवं विज्ञाय भगिन्याः सम्प्रति करणीये. देवी प्रमाण । [शालिक]-[फिर चारुदत्तसे कहता है] प्रार्य ! इस भिक्षुका क्या किया आय ? चारुवत्त-हे भिक्षो ! कहिए पाप क्या चाहते हैं ? भिक्षु--[संसारको] अनित्यताको देखकर मुझे वैराग्य हो गया है।
चारुदत्त-हे मित्र ! इसका यह निश्चय दृढ़ है। इसलिए पृथिवीके सब बिहारोंका इनको कुलपति बना दो।
शालिक---यह ठीक है ऐसा ही होगा। चारुदत्त-यही हमें प्रिय है। वसंतसेना--अब मैं जीवित हुई [अब मेरी जानमें जान पाई] । शालिक--स्थावरकका क्या किया जाय ? खारुवत्त-- इस उत्तम सेवकको दासतासे मुक्त कर दो। शार्वलिक--जैसा आर्य कहते हैं वैसा ही होगा।
इसमें सामसे, दानसे और अन्य प्रकारोंसे प्रिय उक्तियां हैं। इन दोनोंका अलग-अलग कथन भी किया जाता है । इस अंगको भी अवश्य ही निवड करना चाहिए।
(१२) अब 'पूर्वभाव' [नामक निर्वहरणसंधिके बारहवें प्रङ्गका लक्षण मावि करते हैं]
[सूत्र ११५]--कार्य [अर्थात् मुख्य फल] का दर्शन करना या कराना] प्राग्भाव [या पूर्वभाव कहलाता है । जैसे रस्नावली में
"यौगंधरायण--इस सबको जानकर प्रब अपनी बहिनके लिए क्या करना चाहिए इसमें पाप ही प्रमारण हैं।
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