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________________ १६० ] (११) अथ भाषणम् गृह्यते । नाट्यदर्पणम् [ सूत्र ११४ ] - भाषणं सामदानोक्तिः । साम्नो वचन ददतश्च वचनम् । श्रभ्यामुपलक्षणपरस्वात् प्रियं हितं च “यथा मृच्छकट्याम्-- आर्यकराजाज्ञया शार्बलिकश्चारुदत्तमाह- त्वद्यानं त्र्यः समारुह्य गतस्ते शरणं पुरा । पशुवद् वितते यज्ञे इतस्तेनाद्य पालकः ॥ चारुदत्तः -- शार्बलिक ! किं योऽसौ राज्ञा पालकेन घोषादानीय निष्कारणं कूदागारे बन्धने बद्ध आर्यकनामा त्वया मोचितः ? शार्वलिकः - सत्यम् । सिंहासनाधिरोहे अनुष्ठितमात्रे च तेन तब सुहृदा राज्ञा श्रर्यकेण उज्जयिन्यां च वेलातटे तुभ्यं राज्यमतिसृष्टम् । तत् प्रतिमान्यतां प्रथमः सुहृत्- प्रणयः । [पुनवेंसन्तसेनामाह] आर्ये वसन्तसेने ! राजा तवोपरि तुष्टो भवर्ती वधूशब्देन अनुगृह्णाति । वसन्तसेना -- श्रज्ज सव्वलिय कयत्थ हि । I [ श्रार्य शालिक ! कृतार्थास्मि । इति संस्कृतम् ] । [पुनश्चारुदत्तमाह-आर्य ! किमस्य भिक्षोः क्रियताम् ? "जो तुम्हारे रथपर चढ़कर प्राया था उस [ श्रार्यक] ने [पहिले डाला । [ का० ६५, सू० ११४ स्वप्नोऽयं, न हि विभ्रमो नु मनसः, शान्तं, तदेषा त्रपा जाया ते, कथमंकबालतनया, पुत्रस्तवायं, मृषा । आलम्बायन एष वेत्ति नियतं सम्बन्धमेतद्गतम् केनैतद् घटित विसन्धि, विधिना, सर्वं समायुज्यते ||६४|| (११) अब 'भाषण' [नामक निर्वहरणसंधिके ग्यारहवें अंगका लक्षरण श्रादि करते हैं ][सूत्र ११४] साम-दानके वचन 'भाषण' [कहलाते ] हैं । सामका वचन श्रौर देते हुए [दान ] का वचन [ भावरण कहलाता है] । इनके उपलक्षरणमात्र होनेसे इनसे प्रिय तथा हित [ वचनका ग्रहण होता है । जैसे मृच्छकटिक में प्राक राजाकी प्राज्ञासे शालिक चारुदत्तसे कहता है Jain Education International [राजा बननेसे पहिले छिपनेके लिए ] तुम्हारी शरणमें राजा ] पालकको विस्तृत यज्ञमें पशुके समान मार चारुदत्त - शालिक ! क्या जिसको राजा पालकने प्रहीरों की बस्ती से लाकर बिना कारण ही तहखाने में कैद कर दिया था उस श्रार्यकको तुमने छुड़ा दिया । शालिक - - हाँ [ ठीक है । और सिंहासन पर बैठनेके साथ ही तुम्हारे उस मित्र राजा श्रार्यकने उज्जयिनी में वेलाके किनारे तुम्हें राज्य प्रदान किया है। इसलिए मित्रको इस प्रथम इच्छाको स्वीकार करो । ऊपर प्रसन्न होकर [फिर वसंतसेनासे कहता है] प्रायें वसंतसेने ! राजा म् तुमको वधू पद [ अर्थात् चारुदत्तकी वधू पद] से सम्बोधित करते हैं । वासवदत्ता - प्रार्य शार्बलिक ! मैं अनुगृहीत हूँ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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