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का० ६४, सू० ११३ ]
प्रथमो विवेकः
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पुष्पदूतिके तु निर्णयवर्जितानि सन्ध्यादीन्यंगानि परिगूहनान्तानि एकस्मिन्नेव श्लोके दृश्यन्ते । तथाहि"समुद्रदत्तः -- स्वप्नोऽयं । सेनापतिः न हि !
समुद्रदत्तः - विभ्रमो नु मनसः ? [१ सन्धिः ] 1. सेनापतिः -- शान्तम् !
समुद्रदत्तः —तदेषा त्रपा । [२ निरोधः ]
सेनापतिः -- जाया ते । [ ३ प्रथनम् ]
समुद्रदत्तः -- कथमङ्कबालतनया ? [४ परिभाषणम् ] सेनापतिः -- पुत्रस्तवायं ।
समुद्रदत्तः - मृषा । [५ द्युतिः]
सेनापतिः -- आलम्बाय न एष वेत्ति नियतं सम्बन्धमेतद्गतम् । [६ प्रसादः ] समुद्रदत्तः -- केनैतद् घटितं विसन्धि [७ आनन्दः ] सेनापतिः - - विधिना । [८ समयः ]
समुद्रदत्त:- [सुतरूपं दृष्ट्वा ] सर्वं समायुज्यते । [६ परिगृहनम् ] इति । ६४ |
पुष्पदृतिक में तो [निर्वहरणसंधिके अब तक वरिंगत इन दस श्रङ्गों मेंसे ] एक निर्णय को छोड़कर संधिसे लेकर परिगूहन पर्यन्त [ नौ प्रङ्ग ] एक ही इलोकमें दिखलाई देते हैं । जैसे-
'समुद्रदत्त - क्या यह स्वप्न है ?
सेनापति नहीं |
समुद्रदत्त तो क्या मनका भ्रम है ? [यहाँ तक संधि नामक प्रथम श्रङ्ग हुग्रा ] सेनापति-- नहीं नहीं [शांतम् ] ।
समुद्रदत्त तो क्या यह लज्जा है ? [यह निरोध नामक द्वितीय श्रङ्ग हुआ ] सेनापति - यह आपकी स्त्री है। [यह प्रथन नामक तृतीय श्रङ्ग हुआ ] समुद्रदत्त- तो इसकी गोद में छोटा बच्चा कैसे है ?
[ यह परिभाषरण नामक चतुर्थ हुआ ]
1
सेनापति - यह आपका पुत्र है समुद्रदत्त झूठ ! [ यह पाँचवाँ द्युति नामक ग्रङ्ग हुग्रा ]
सेनापति - [ इस पुत्रके] ग्रहरण करनेके लिए यह निश्चय ही इसके साथ अपने सम्बंध को नहीं जानता है । [यह छठा प्रसाद अङ्ग हुप्रा ]
समुद्रदत्त --इस टूटे सम्बन्धको किसने जोड़ दिया ? [ यह सातवाँ आनन्द श्रङ्ग है ]
सेनानति - देवने । [ यह आठवाँ अंग समय हुआ ]
समुद्रदत्त --- [पुत्रके रूपको देखकर ] सब कुछ हो सकता है ।
[यह 'परिगृहन' नामक नवम अंग हुआ ] इस प्रकार एक ही श्लोक में निर्वहरण संधिके नौ अंगोंका इकट्ठा समावेश इस श्लोक में दिखलाया गया है । इलोकके रूपमें इस संवादको इस प्रकार लिखा जायगा --
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