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________________ १८८] नाट्यदर्पणम् [ का० ६४, सू० ११३ विस्मयस्थायिभावात्मकस्य श्रद्भुतरसस्य प्राप्तिरुपगूह्नम् । यथा रामाभ्युदये रामेण प्रत्याख्याता सीता ज्वलनं प्रविष्टा । तदनन्तरं - नेपथ्ये कलकलः - धूमव्रात वितानीकृतमुपरि शिखादोर्भिरभ्रंलिहायैः, विद् भ्राजिष्णु रत्नं ततमुरसि तथा चर्म चामूरखं च । भूयस्तेजः प्रतानैर्विरह मलिनतां चालयन्नङ्कभाजो, देव्याः सप्तर्चिराविर्भवति विफलयन् वाच्छितान्यन्तकस्य ॥" ततः प्रविशति पटाक्षेपेण सीतामादाय वह्निः । सर्वे दष्ट वा संसम्भ्रममुत्थाय वयं श्रचर्यम् । नमो भगवते हुताशनाय इति प्रणमन्ति । " अत्राग्निप्रविष्टसीताप्रत्युज्जीवनात् अद्भुतप्राप्तिः । यथा वा रघुविलासे T " मध्येऽम्भोधि बभूव विंशतिभुजं रक्षो दशास्यं पुनस्तत् पाताल-मही-त्रिविष्टपभटांश्चक्राम दोर्विक्रमैः । मर्त्यस्तस्य पुनर्मृणालतुलया चिच्छेद कण्ठाटवीं, वैराग्यस्य च विस्मयस्य च पदं रामायणं वर्तते ॥ विस्मय जिसका स्थायीभाव है इस प्रकारके अद्भुत रसकी प्राप्ति 'परिग्रहन' [ कहलाता ] है । जैसे रामाभ्युदयमें रामके द्वारा [ प्रत्याख्यान अर्थात् ] अस्वीकार कर दिए जानेके बाद सीता प्रग्निमें प्रविष्ट हो जाती है। उसके बाद- "नेपथ्य में कोलाहल [ और उसके साथ निम्न वचन सुनाई देते हैं ] -- प्रकाशको चुम्बन करनेवाली ज्वालारूप बाहुनोंसे धूमसमूहको वितान बनाकर, छाती पर चमकते हुए रत्नको तथा मृगचर्मको धाररण किए हुए अपने तेजः समुदायके द्वारा सीतादेवीके विरहको मलिनताकी दूर करते हुए से गोद में बैठी हुई सीतादेवीकी विरहजन्य मलिनताको दूर करते हुए बह्निदेव कालके मनोरथको विफल करके [सीता सहित ] प्रकट हो रहे हैं । उसके बाद सीताको लिए हुए, पटाक्षेपसे वह्निदेव प्रविष्ट होते हैं । सब लोग देखकर श्रादरपूर्वक खड़े होकर -- श्राश्चर्य है, श्राश्चर्य है । भगवान् श्रग्निदेवको नमस्कार है । यह कहकर प्रणाम करते हैं 13 यहाँ अग्नि में प्रविष्ट हुई सीताके फिर जीवित हो जानेसे श्रद्भुत रसकी प्राप्ति है [ अतः यह 'परिगृहन' नामक अंगका उदाहरण है ] । श्रथवा जैसे रघुविलासमें- "बीस भुजाओं और दश शिरों वाला राक्षस [रावरण] समुद्रके बोचमें था किन्तु उसने भुजानोंके बलसे पाताल, पृथिवी और स्वर्ग सबको आक्रांत कर लिया था । फिर एक मनुष्यने उसके कण्ठोंके समुदाय को मृणालके समान [अनायास ही ] काट डाला। इस प्रकार रामायण [संसारके बल-वैभव आदि की व्यर्थताको दिखलानेके कारण] वैराग्य और विस्मय स्थान है ।" [ यहाँ भी श्रद्भुत रसका वर्णन होनेसे 'परिगृहन' श्रङ्ग माना जाता है] । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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