________________
का० ६४, सू० ११२-११३ ] प्रथमो विवेकः
[ १८७ वयस्सस्स इति । [ही ही भो । जयतु भवान् ननु पृथिवीदानी हस्ते भूतैव प्रियवयस्यस्य ।
इति संस्कृतम्।]" (8) अथ समयः
[सूत्र ११२]--समयो दुःखनिर्वासः । दुश्खनिर्गमयुक्तः कालः समयः । यथा मृच्छकट्यां चारुदत्तं, पालकस्य राज्ञ आज्ञया बध्यत्वेन चाण्डालगोचरगतं, तत्क्षणप्राप्तराज्यस्य आर्यकस्याज्ञया शालिक आइ
"शालिक:--अपयात अपयात जाल्माः ।[दृष्ट वा सहर्षम्] ध्रियते चारुदत्तः सह वसन्तसेनया । सम्पूर्णाः खल्वस्मत् स्वामिनो मनोरथाः ।
दिष्ट्या भो ! व्यसनमहार्णवादगाधादुत्तीर्णे गुणवृत्तया सुशीलवत्या। त्वामेव प्रियतमया युतं समीक्षे,
ज्योत्त्नाढ्य शशिनमिवोपरागमुक्तम् ।" अत्र चारुदत्तस्य दुःखापगम इति । (१०) अथ परिगृहनम्
[सूत्र ११३]-अद्भुताप्तिः परिगृहनम् ॥६४॥ का पाणिग्रहण कर लेनेके कारण] अब समझो कि सारी पृथिवी ही प्रिय वयस्कके हाथ में प्रा गई।
इसमें सागरिका रूप वाञ्छित अर्थको प्राप्ति हो जानेसे राजाको प्रत्यंत प्रानन्य हुमा। इस प्रकार यह मानन्द नामक अंगका उदाहरण है।
(९) अब 'समय' [नामक निर्वहरणसंधिके नवम अंगका लक्षण प्रादि करते हैं][सूत्र ११२]-दुःख [के विनों का निकल जाना 'समय कहलाता है।
दुःखके निकल जानेवाला काल 'समय' [नामक अंग कहलाता है। जैसे मृच्छकटिकमें राजा पालककी प्राज्ञासे वध किए जाने योग्य चारुदत्तके चाण्डालोंके हाथ में पहुँच जानेपर [सहसा हुई राज्यकांतिमें 'पालक' को हटाकर 'प्रार्यक' के राजा बन जाने पर उसी समय राज्यके ऐश्वर्य [अर्थात् राजसिंहासन को प्राप्त करनेकाले 'पार्यक' की माज्ञासे 'शालिक' कहता है--
"शालिक हटो चाण्डालो हटो। [देखकर हर्षपूर्वक] सौभाग्यसे वसंतसेनाके सहित चारुदत्त जीवित हैं । अब हमारे स्वामीके सब मनोरथ पूर्ण हो गए।
सौभाग्यवश गुणों से परिपूर्ण तथा सुन्दर शील स्वभाववाली [अपनी प्रियतमा वसंतसेना] के सहित [मार्य चारुवत्त] अपार दुःखसागरको पार कर चुके हैं अब मैं ग्रहणसे मुक्त चंद्रिकायुक्त चंद्रमाके समान तुमको भी अपनी] प्रियतमासे युक्त देखना चाहता हूँ।"
यहाँ चारुदत्तके दुःखकी समाप्ति हो जानेसे [यह 'समय' अंगका उदाहरण है। (१०) अब 'परिगृहन' [नायक निर्वहरणसंधिके दशम अंगका लक्षण प्राधिकरते है] । [सूत्र ११३]-~अद्भुत प्रर्थकी प्राप्ति परिगृहन' [कहलाता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org