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________________ -- का० २०५, सू० २६७ ] चतुर्थो विवेकः . [ ४०१ द्रष्टव्या। मुनिर्निम्रन्थ५:, शाक्यः सौगतः, एतौ भदंतेति । थपरः पाशुपतादिव्रती स्वसमयप्रसिद्धनामभिर्वाच्यः । यथा पाशुपतस्य भापूर्व 'भासर्वज्ञ' इत्यादि सम्भाषणम् । तथा सूत्री सूत्रधारो अनुगेन अनुचरेण का 'भाव'-शब्देन सम्भाष्यः। असो इत्यनुगः सूत्रधारात् किंचिन्न्यूनगुणः तेन सूत्रधारेण 'मार्ष' इत्यभिधातव्यः। तथा समो वयो ऽवस्था-गुणादिना तुल्यः, समेनैव 'सखा' इति वाच्यः। मित्राभिधायिना शब्देन सम्भाष्य इत्यर्थः। अनेन च विधानेन समस्य प्रसिद्धस्वनाम्ना सम्माषण न निषिध्यते। असम्भवायोगयोर्व्यवच्छेदफलत्वात् सर्वस्यापि नामविधानस्य । तेन आर्यादिनामविधानेऽपि नान्यशब्देन कीर्तननिषेधः।। 'शिष्यात्मजानुजाः' इति शिष्यो दीक्षितोऽध्यापितोवा । आत्मजः पुत्रः। अनुजो लघीयान् भ्राता। एते गुरु-जनक-ज्येष्ठभ्रातृभिः यथासंख्य पुत्रशब्देन वत्सशब्देन च सम्भाष्याः। तातशब्देन पुनर्जरन्, अपि-शब्दात शिष्यात्मजानुजाश्च कीर्तनीयाः। तथा नीचप्रकृतिमध्यमोत्तमाभ्यां 'सौम्य' इति 'भद्रमुख' इति च शब्द्यते। पामरैर्नीचैः पुनर्नीच एव 'हंडे'-शब्देन, उपलक्षणाद् 'अरे', 'हहो' इत्यादिना च के पुत्र ‘भत वारक' को 'कुमार' कहा जाता है। इसी प्रकार कुमारीके लिए भी [भर्तृ दारिका पदका प्रयोग] समझना चाहिए । मुनि अर्थात् दिगम्बर, जैन और शाक्य अर्थात बौख-भिक्षु । इन दोनोंको 'भदन्त' इस पदसे सम्बोषित किया जाता है । पाशुपतादि अन्य सम्प्रदायोंके साधु अपने-अपने सम्प्रदायमें प्रसिद्ध नामोंसे सम्बोधित होते हैं। जैसे पाशुपत साधुके लिए भा-वाय को पहले लगाकर 'भा-सर्वज्ञ' मावि सम्बोधन किया जाता है। . और सूत्री अर्थात् सत्रधारको अनुग अर्थात् उसके किचित् न्यून गुण वाले .. अनुचरके द्वारा 'भाव' शब्दसे सम्बोधित किया जाता है । और 'प्रसौं अर्थात् अनुचरको जोकि सूत्रधारसे किचित् न्यूनगुण वाला होता है सूत्रधार द्वारा 'भाष शम्बसे सम्बोषित किया जाता है। और बराबर वाले अर्थात् प्रायु, दशा और गुणाविमें अपने समान व्यक्ति को बराबर वाला व्यक्ति 'सखा' कहकर अर्थात् मित्र-वाचक पदोंसे सम्बोधित करता है। इस विधानके द्वारा बराबर वालेको उसके प्रसिद्ध नामसे सम्बोधित करनेका निषेध नहीं किया जा रहा है। इन सारे सम्बोधन-प्रकारोंके विधान का प्रयोजन असम्भव [अर्थात् प्रत्यन्तायोग] और प्रयोग-व्यवच्छेद करना ही है, इसलिए 'प्राय आदि नामोंके विधानमें भी अन्य शब्दों के द्वारा सम्बोषित करनेका निषेष नहीं है। "शिष्यात्मजानुजाः' इसमें शिष्य अर्थात् जिसको दीक्षा दी हो अथवा पढ़ाया हो। मात्मज अर्थात् पुत्र । पौर अनुज अर्थात् छोटा भाई। इनको [क्रमशः] गुरु, पिता और बड़े भाईके द्वारा 'पुत्र' शब्दसे और 'वत्स' शब्दसे सम्बोषित किया जाता है। 'तात' शम्दसे [शिष्य, पुत्र और छोटे भाईको तो सम्बोषित किया हो जाता है किन्तु इनके अतिरिक्त] वृद्ध जनोंको भी सम्बोधित किया जाता है । 'अपि' शम्से शिष्य, पुत्र तथा छोटे भाईको भी 'सात' शब्दसे सम्बोधित किया जाता है। और नीच प्रकृति वालेको उत्तम तथा मध्यम लोग . 'सौम्य', प्रौर भामुख कहकर पुकारते हैं। पामरों अर्थात् नीचोंके द्वारा नीच पुरुषको ही 'हंडे' शब्बसे और इसके उपलक्षणमें रूप होनेसे 'मरे', 'हहो' मावि शम्दोंसे भी पुकारते हैं। 'येन' अर्थात् जिस कर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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