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________________ २८८ ) नाट्यदपणम् का० १०८, सू. १६२ वेषेण यथा-नागानन्दे विदूषक-शेखरव्यतिकरे : चेष्टानर्म यथा मालविकाग्निमित्रेनिपुणिका विदूषकस्योपरि सर्पविभ्रमकारि दण्डकाष्ठं पातयति । इति । एतच्च क्वचिन्मानान् , कचिद्धास्यात् , कचित् शृङ्गार-हास्यात् , कचिद् भयहास्यात् , कचित् सापराधप्रिय-प्रतिभेदनात् , कचित् पूर्वनायिका-प्रतिभयात् , इत्याद्यनेकधा द्रष्टव्यम्। ___ अत्र शृङ्गाररसेन रत्याख्यो मानसो, हास्येन नर्मभेदैश्च वाचिको, नाट्य न कायिकश्च व्यापारः संगृहीत इति व्यापारत्रयसङ्करात्मिकेयगिति । 'अथारभटी [सूत्र १६२]-प्रारभट्यनृत-द्वन्द्व-छद्म-दीप्तरसान्विता ॥[६]१०८॥ __ आरेण प्रतोदकेन तुल्या भटा उद्धताः पुरुषा आरभटाः। ते सन्त्यस्यामिति 'ज्योत्स्नादित्वादणि' आरभटी। अनुतमसत्यम् । द्वन्द्वयुद्धमनेकप्रकारम् । छद्म वञ्चनाहेतुः प्रयोगः । अनेन इन्द्रजाल-पुस्तप्रयोग-च्छेद्य-भेद्यादिग्रहः । दीता रसा रौद्रादय : कही गई है किन्तु वेश्या-व्यापारमें इसके विपरीत कामसे अर्थको प्राप्ति वेश्यानोंको होती है] ।" वेषके द्वारा [ परिहास रूप नर्मका उदाहरण ] जैसे नागानन्दमें विदूषक और शेखर के सम्पर्क में [हा है। चेष्टाके द्वारा परिहासका [उदाहरण] जैसे मालविकाग्निमित्रमें--- निपुरिणका विदूषकके ऊपर सर्पकी भ्रांति उत्पन्न करने वाले लकड़ी के ढ़े-मेढ़े ] उण्डेको डाल देती है। यह [परिहास या नम] कहीं मानके कारण, कहीं हास्यके कारण, कहीं शृंगारजनक हास्य के लिए, कहीं भयजनक हास्यके लिए, कहीं अपराधी प्रियके प्रतिभेदनके कारण, और कहीं पूर्व नायिकाके भयके कारण, इस प्रकार अनेक तरहका होता है। ___ यहाँ [कारिकामें आए हुए] शृङ्गाररससे रति-रूप मानस-व्यापारका, हास्य [पद] से और परिहासके [पूर्वोक्त] भेदोंसे वाचिक-व्यापारका, तथा 'नाट्य' [पद] से कायिक व्यापार का संग्रह होता है । इसलिए यह [कशिकी वृत्तितीनों प्रकारके व्यापारोंके सर रूप है। [अर्थात् कैशिकी वृत्तिमें तीनों प्रकारके व्यापारोंका समावेश रहता है । ४ आरभटी वृत्तिका निरूपण-- अब प्रारभटी [वृत्तिका लक्षण करते हैं]--- [सूत्र १६२]--अनृतभाषण, छल-प्रपञ्च, द्वन्द्वयुद्ध, तथा [रौद्र धादि] दोहरसोंसे युक्त [वृत्ति प्रारभटी [वृत्ति कहलाती है । [६] १०८ । 'प्रार' अर्थात् चाबुकके समान, जो भट अर्थात् उद्धत पुरे' वे 'प्रारभट' हुए। वे जिसमें प्रचुर मात्रामें हों वह [प्रारभट शब्दको] ज्योत्सनादि गणपठितम र अण-प्रत्यय करनेपर प्रारभटो [वृत्ति कहलाती है। [लक्षरण में प्राए हुए प्रनृतादिदाका अर्थ करते हैं] अनृत अर्थात् असत्य भाषण । द्वन्द्वयुद्ध अनेक प्रकारका हो सकता है। धोखा देने के लिए किए जाने वाला प्रयोग छद्म कहलाता है । इसके द्वारा इन्द्रजाल [पुस्त लेप्यादि निर्मित पुतली प्राविका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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