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तृतीयो विवेकः
का० १०६, सू० १६२ } औद्धत्यागादिहेतवः । अत्रानृतादिभिर्विचित्रनेपथ्य किलिञ्जहस्तिप्रयोग-मायाशिवोदर्शनादिकं भय हर्षातिशयाकुलितपात्रप्रवेशः, पूर्व नायकावस्थायाः परित्यागेन नायकावस्थान्तरग्रहो अवस्कन्द- अग्न्यादिकृतविद्रवादिक, विविधस्थायि व्यभिचारिभावयुक्तं प्रसंगागत कार्यादिकं बाहुयुद्ध-शस्त्रप्रहारादिकं च संगृह्यते । त एवेयं सर्वाभिनयात्मिका सर्वव्यापारात्मिका च ।
तत्र विचित्रं नेपथ्यं वेणीसंहारे अश्वत्थाम्नः । उदयनचरिते किलिञ्जहस्तिप्रयोगः । माया शिरोदर्शनं रामाभ्युदये । बलीमुखेन पात्रप्रवेशो रत्नावल्याम् । हर्षेण वामनचेट्याः प्रवेशः सत्यहरिश्चन्द्रे । बालिनेतृत्यागेन सुग्रीवनेत्रन्तरग्रहणम् । परशुरामस्यौद्धत्यावस्था त्यागेन शान्तावस्थान्तरग्रहणम् । विचित्रभावं कार्यान्तरं कृत्यारावणे । तथा हि अंगदेनाऽभिद्र्यमाणाया सन्दोदर्या भयम् । अंगदस्योत्साहः । अस्यैव रावदर्शनेन 'एतेनापि सुराजिताः' इत्यादि वदतो शसः । 'यस्तातेन निगृह्य बालक इव प्रक्षिप्य कक्षान्तरे' इति च जल्पतो जुगुप्सा -हास - विस्मयाः । रावणस्य रति-क्रोधौ । नियुद्धादि तु रामायणीयेषु इन्द्रजिल्लदमरणयोरिति ॥[६] १०८||
प्रयोग तथा छेद्य-भेद्य श्रादिका ग्रहण होता है। प्रोद्धत्य, आवेगादिके कारणभूत रौद्रादिरस दीप्तरस [ कहलाते ] हैं : इसमें अनृतादिसे, नाना प्रकारके वेष विन्यास, [ किलिञ्जहस्तिप्रयोग अर्थात् ] चटाई श्रादिसे बने हुए [बनावटी ] हाथीका प्रयोग, तथा [मायाशिरोदर्शन अर्थात् ] बनावटी शिर प्रादिका दिखलाना [गृहीत होता है], भय तथा हर्षके अतिशयसे व्याकुल पात्रका प्रवेश, नायककी पूर्वावस्थाको छोड़कर नायककी दूसरी अवस्थाका प्रहरण, प्राक्रमरण या श्रग्नि श्रादिके द्वारा किए जानेवाली भगदड़, आदि रूप नाना प्रकारके स्थायि व्यभिचारिभावोंसे युक्त प्रासंगिक कार्यादि, बाहुयुद्ध और शस्त्रप्रहारादिका संग्रह हो जाता है । इसलिए यह [प्रारभटी वृत्ति कायिक, वाचिक, तथा मानसिक ] सब प्रकार के अभिनयोंसे युक्त श्रौर सब प्रकारके व्यापारों वाली [वृत्ति ] है ।
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उनमें विचित्र वेष- विन्यास [ का उदाहरण] जैसे वेणीसंहार में अश्वत्थामाका [विचित्र वेष- विन्यास वर्णित है ] । उदयनके चरित्र में बनावटी हाथीका प्रयोग पाया जाता है । बनावटी शिरका दर्शन जैसे रामाभ्युदयमें [ रामके बनावटी कटे हुए सिरका दर्शन सोता को कराया गया ] है । [बलीमुख प्रर्थात् ] बन्दरके भयसे प्रवेश [का उदाहरण] जैसे रस्नावली में [पाया जाता है] । हर्षसे जैसे सत्यहरिश्चन्दमें वामनचेटीका प्रवेश [वरित है ] । बालीके नेतृत्वको छोड़कर सुग्रीवके नेतृत्वको स्वीकार करना । परशुरामको उद्धतावस्थाको छोड़कर दूसरी शान्तावस्थाका वर्णन [ ये दोनों नायकान्तर और अवस्थान्तर के ग्रहरणके उदाहरण हैं ] । विचित्र प्रकारके [ प्रासङ्गिक ] अन्य कार्य [ का उदाहरण ] जैसे कृत्यारावण में [ निम्न प्रकार पाया जाता है ] श्रङ्गदके द्वारा पीछा किए जानेपर मन्दोदरीका भय, श्रङ्गदका उत्साह, इस [ अङ्गदके द्वारा ही रावरणको देखनेपर 'अच्छा इस [रावरण] ने भी देवताओं को जीता था इस प्रकार कहते हुए [रावरणका ] हास्य बनाना, श्रौर 'जिसको [ रावण] पिताजी : [ अर्थात् श्रङ्गद के पिता बाली ] ने बालकके समान पकड़कर कोठरी में [ बन्द कर दिया था]' इस प्रकार कहते हुए [रावरण के प्रति भङ्गवकी] घृणा, हास्य और विस्मय [ का वर्णन ] तथा रावणके रति, क्रोध [ ये सब प्रसङ्गोचित कार्योंके उदाहरण हैं] । रामायरणके प्राधारपर
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