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नाट्यदर्पणम [ का० १०६, सू० १६३ अथ 'रसभावाभिनयगाः' इत्यतो वृत्तिलक्षणात् प्रथमं रस्माचष्टे[सूत्र १६३]-स्थायी भावः श्रितोत्कर्षो विभाव-व्यभिचारिभिः ।
स्पष्टानुभावनिश्चयः सुख-दुःखात्मको रसः ॥[७]१०६॥ प्रतिक्षणमुदय-व्ययधर्मकेषु बहुष्वपि व्यभिचारिष्वनुयायितयावश्यं तिष्ठतीति स्थायी । यद्वा तद्भाव एव भावात् अनावे वाभावात् रत्यादिर्व्यभिचारिणं ग्लान्यादिके प्रत्यवश्यं स्थायी। उपचयं प्राप्य रसरूपेण रत्यादिर्भवतीति भावः । विसाव-र्ललनोद्यानादिभिरालम्बनोद्दीपनरूपै-र्बाह्य हेतुभिः सत एवाविर्भावाद्, व्यभिचारिभिर्लान्यादिभी रसिकमनः-शरीरवर्तिभिः परिपोषणाच्च श्रितोत्कर्षः । स्वीकृतसाक्षात्कारित्वानुभूयमानावस्थो, यथासम्भवं सुख-दुःखस्वभावो रस्यते आस्वाद्यते इति रसः ।
तत्रेष्टविभावादिग्रथितस्वरूपसम्पत्तयः शृंगार-हास्य-वीर-अद्भुत-शान्ताः सुखात्मानः। अपरे पुनरनिष्टविभावाद्युपनीतात्मानः करुण-रौद्र-बीभत्स-भयानकाश्चत्वारो दुःखात्मानः । बने नाटकादिमें लक्ष्मण और मेघनादके नियुद्ध आदि [के उदाहरण हैं] ॥[६] १०८॥ रस निरूपण
[इस प्रकार भारती प्रादि चारों वृत्तियोंके लक्षण हो जानेके बाव] प्रब वृत्तिके [सामान्य] लक्षणमें पाए हुए 'रस-भावाभिनयगाः' इस पदमेंसे सबसे पहिले रसका वर्णन प्रारम्भ करते हैं---
[सूत्र १६३]-विभाव तथा व्यभिचारिभाव प्रादिके द्वारा परिपोषको प्राप्त होने वाला, स्पष्ट अनुभावोंके द्वारा प्रतीत होनेवाला, स्थायिभाव [रूप ही] सुख-दुःखात्मक [अर्थात केवल सुखात्मक अथवा केवल दुःखात्मक न होकर उभयात्मक] रस होता है । [७] १०६ ।
[यह ग्रन्थकारने रसका लक्षण किया है। अब उसमें पाए हुए स्थायिभावादिका स्वरूप दिखलाते हैं] प्रतिक्षरण उदय तथा अस्त होने वाले अनेक व्यभिचारिभावों में जो अनुगतरूपसे अवश्य विद्यमान रहता है वह 'स्थायिभाव' [कहलाता है । अथवा उस [स्थायिभाव] को विद्यमानतामें ही होने और उसकी अविद्यमानतामें [व्यभिचारिभावोंके] न होनेसे, व्यभिचारिभाव ग्लानि मादिके प्रति, रत्यादि अवश्य स्थायिभाव होता है। [यह स्थायी शब्दका अर्थ हुप्रा अब आगे स्थायीके आगे जुड़े हुए भाव शब्दका अर्थ करते हैं। व्यभिचारिभाव प्रादि सामग्रीके द्वारा] परिपोषको प्राप्त करके रत्यादि, रसरूप हो जाता है इसलिए ['भवतीति भावः इस व्युत्पत्तिके अनुसार रेत्यादि] 'भाव' [कहलाता है। विभावों अर्थात् ललना और उद्यान प्रादि [रूप] आलम्बन तथा उद्दीपन विभावरूप बाह्य हेतुओंके द्वारा पूर्वसे ही विद्यमान [रत्यादि स्थायिभाव का आविर्भाव होनेसे, और रसिकोंके मन में विद्यमान ग्लानि प्रादि व्यभिचारिभावोंके द्वारा परिपुष्ट होनेके कारण, उत्कर्षको प्राप्त [अर्थात् साक्षात्कारात्मक अनुभूयमानावस्थाको प्राप्त होनेवाला, यथासम्भव सुख-दुखोभयात्मक [स्थायिभाव रस्यते इति रसः' इस व्युत्पत्तिसे] आस्वाद्यमान होनेसे रसपदसे वाच्य [बोधित होता है।
[रसके इस लक्षरणमें रसको सुख-दुःखात्मक अर्थात् उभयात्मक माना है। उन दोनों प्रकारके रसोंका विभाग मागे दिखलाते हैं] उनमेंसे इष्ट विभावादिके द्वारा स्वरूपसम्पत्तिको
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