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तीन शताब्दियां बीत चुकी थीं, भोर इस काल में ऐसे अनेक नाटक विरचित हो चुके थे, जिन्हें देख कर रामचन्द्र-गुणचन्द्र को दशरूपक के लक्षण और उदाहरण अपर्याप्त प्रतीत होने लगे, और उन्हें नाटयशास्त्र पर एक स्वतन्त्र मौलिक ग्रन्य लिखने की.मावश्यकता जान पड़ी।
रचना की प्रेरणा
रामचन्द्रगुणचन्द्र के पूर्व नाट्यशास्त्र-सम्बन्धी तीन ग्रन्थ पति प्रसिद्ध थे। १. भरतकृत 'नाट्यशास्त्र' २. धनञ्जय-कृत 'दशरूपक' ३. सागरनन्दी-कृत 'नाटकलक्षणरत्नकोष'। नाटघदर्पण में स्थान स्थान पर उपर्युक्त तीनों ग्रन्थों से मतभेद मिलता है । रामचन्द्र स्वयं एक सफल नाटयकार थे। उन्होंने एक दर्जन से अधिक नाटकों की रचना की। अपने ग्रन्थ नाट्यदर्पण में पारिभाषिक शब्दों का लक्षण देते हुए उदाहरण के लिए उन्होंने अपने नाटकों से उद्धरण दिये । इससे यह माभास मिलता है कि वे पूर्ववर्ती प्राचार्यों के लक्षण और उदाहरणों से प्रसन्तुष्ट होकर नवीन ग्रन्यों की रचना आवश्यक समझते थे। वे स्वयं लिखते हैं कि कालिदास आदि महान् कवियों के बनाए हुए अनेक रूपकों को देख कर और स्वयं भी अनेक रूपकों का निर्णय करके हम दोनों नाट्य-लक्षण की विवेचना प्रारम्भ करते हैं । (ना० द. १२)
प्राचार्य विश्वेश्वर ने अपनी भूमिका में इस ग्रन्थ की प्रेरणा के सम्बन्ध में अपना मत देते हुए लिखा है "इसकी पृष्ठभूमि में राजनीति की प्रतिस्पर्धा की प्रेरणा रही हो तो भी कुछ माश्चर्य नहीं है । दशरूपककार धनञ्जय मालवनरेश मुंज के सभापण्डित थे। रामचन्द्र-गुणचन्द्र गुर्जरेश्वर के पण्डित थे । गुजरात पोर मालवा राज्यों का सदा संघर्ष रहता था। इसमें दीर्घकाल तक युद्ध भी चलते रहे थे। इसलिए गौरव-प्राप्ति के हर क्षेत्र में दोनों राज्यों की प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी। इसी प्रतिस्पर्धा के कारण मालवाधीश के प्राश्रय में निर्मित दशरूपक की प्रतिस्पर्धा में इस नाटयदर्पण की रचना हुई हो, यह सर्वथा संभावित है"।
दशरूपक और नाटकलक्षणरत्नकोष से नाट्यदर्पण की तुलना करते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि रामचन्द्र को पूर्ववर्ती मावार्यों के नाट्यसम्बन्धी लक्षणों से कई स्थलों पर इतना असन्तोष था कि उन्हें अपने मत को स्पष्ट करने केलिए एक नये ग्रन्थ की रचना करनी आवश्यक प्रतीत हुई । दशरूपक और नाट्यदर्पण की तुलना करते हुए २१ स्थलों पर मतभेद मिलता है, जिसका विस्तृत विवेचन भूमिका के पृष्ठ २१ से २५ तक देखा जा सकता है । सागरनन्दी के मत से भी ये ग्रन्थकार कई स्थलों पर मतभेद रखते हैं, इसका विस्तृत विवेचन भी पृष्ठ २५ पर देखा जा सकता है।
रामचन्द्र-गुणचन्द्र को मौलिकता
रामचन्द्र-गुणचन्द्र निर्भीक शास्त्र प्रणेता थे। उन्होंने न केवल धनञ्जय और सागननन्दी के ही मतों का खण्डन किया है. अपिट भरतमुनि के मत का भी खंडन करने में उन्हें संकोच नहीं हुा । निदर्शन एवं प्रमाण के लिए निम्न प्रसंग द्रष्टव्य हैं
। तृतीय विवेक में प्ररोचना के सम्बन्ध में उनका मत देखा जा सकता है । इसके लिए भूमिका का पृष्ठ २० द्रष्टव्य है । वृत्तियों का निरूपण भी भरतमुनि के मत से भिन्न जान पड़ता है।
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