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________________ ( १ ) रामचन्द्र ने भरतमुनि के 'भारती वृत्ति विवेचन' में 'वदतोव्याघात दोष' दिखा कर भरतमुनि के मत की आलोचना की है। भरतमुनि ने जहाँ रूपक के दश भेद किये हैं, वहाँ 'नाटयदर्पणकार' ने इसके बारह भेद करके मंगलाचरण में ही जिनवाणी के प्राचारादि से लेकर दृष्टिवाद पर्यन्त बारह अंगों के अनुसार रूपक के बारह भेदों का संकेत कर दिया है। भरतमुनि के दशरूपकों से दो भेद नाटिका मौर प्रकरणी अधिक मान कर इन्होंने नयी पद्धति से बारह रूपकभेदों का वर्गीकरण किया है। उन्होंने नाटक, प्रकरण, नाटिका, भौर प्रकरणी में कैशिकी, सात्त्वती, चारभटी प्रोर भारती वृत्तियाँ मानी हैं, किंतु व्यायोग, समवकार, भाण, प्रहसन, डिम, उत्सृष्टिकाङ्क ईहामृग एवं वीथी में कैशिकी रहित केवल तीन वृत्तियों । इसप्रकार वृत्तियों के आधार पर नाटकों का वर्गीकरण रामचन्द्र गुरणचन्द्र की अपनी मौलिक सूझ है । नाट्यदर्पण में रस - विवेचन भी पूर्वाचार्यों से कहीं कहीं भिन्न प्रतीत होता है । रामचन्द्रगुणचन्द्र अपने पूर्ववर्ती प्राचार्य मम्मट के मत का खंडन करते हुए कहीं भी संकोच नहीं करते । मम्मट 'अधिक विस्तार' को रसदोष में परिगणित करते हैं, किन्तु नाट्यदर्पणकार इसे रसदोष न मान कर वृत्तदोष मानते हैं। उनका कथन है कि रस की दृष्टि यह दोष न होकर गुण है । " प्रतिपक्षी का अत्यंत उत्कर्ष दिखलाकर नायक द्वारा उसका बध कराने में तो नायक का उत्कर्ष बढ़ता ही है, इसलिए यह दोष नहीं अपितु गुण है।" इसका विस्तारपूर्वक वर्णन नाट्यदर्पण के पृष्ट १५५ पर देखा जा सकता है। इसी प्रकार इन भाचार्यों ने अभिनवगुप्त के मतों का भी रस की दृष्टि में खंडन किया है। इसके लिए भूमिका (पृष्ठ २८ से ३१) तक द्रष्टव्य है । १ नास्यदर्पणकार का रस- विवेचन सर्वथा मान्य भले ही न हो, पर वह मौलिक अवश्य है । उन्होंने रस को सुखदुःखात्मक दोनों माना है, उनके मत से शृङ्गार, हास्य, वीर, अद्भुत और शांत तो सुखात्मक रस हैं, किन्तु करुण, रौद्र, बीभत्स और भयानक रस दुखात्मक ही हैं । तृतीय विवेचन में कतिपय आचार्यों के सभी रसों को सुखात्मकता का खंडन करते हुए रामचन्द्रपुरणचन्द्र कारिका की वृत्ति में कहते हैं : [कुछ आचार्यों के द्वारा] जो सब रसों को सुखात्मक बतलाया जाता है, वह प्रतीति के विपरीत [ होने से सामान्य प्रसंगत ] है । मुख्य [ प्रर्थात् वास्तविक ) विभावों से उत्पन्न करुण प्रादि की दुःखात्मकता की तो बात ही जाने दो, काव्य के अभिनय में प्राप्त [ बनावटी ] विभाव प्रादि से उत्पन्न हुआ भी भयानक, बीभत्स, करुण, अथवा रौद्र रस आस्वादन करने वालों को कुछ अवर्णनीय-सी क्लेश दशा को उत्पन्न कर देता है । इसीलिए भयानक प्रादि [ दृश्यों] से सामाजिकों को घबराहट होती है [यदि सब रस सुखात्मक हों तो ] सुखास्वादसे तो किसी को उद्वेग नहीं होता [इसलिए करुणादि रस दुःखात्मक ही होते हैं ] । " १. स्थायीभावः श्रितोत्कर्षो विभावव्यभिचारिभिः । स्पष्टानुभावनिश्रेयः सुखदुःखात्मको रसः ॥ २. यत् पुनः सर्वरसानां सुखदुःखात्मकत्वमुच्यते तत् प्रतोतिबाधितम् । प्रास्तां नाम मुख्यविभावोपचिताः, काव्याभिनयोपनीतविभावोपचितोऽपि भयानको बीभत्सकरुणौ रौद्रो वा रसास्वादवतामनाख्येयाँ कामपि क्लेशवशामुपनयति । श्रतएव भयानकादिभिरुद्विजते समाजः । न नाम सुखास्वादोबुद्वेगो घटते । हि० ० ना० द० पृष्ठ २६०-२६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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