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________________ (१२) सभी रसों को सुखात्मक.मानने वाले माचार्यों के तकों का खंडन करते हुए नाट्यवर्पणकार कहते है कि कवि एवं अभिनेता के कौशल के द्वारा करुण मादि रसों में भी बुद्धिमान व्यक्ति को परमानन्द की अनुभूति होती है, यह धारणामात्र है। रामचन्द्र-गुणचन्द्र की युक्ति यह है कि कविगण तो सुख-दुःखात्मक संसार के अनुरूप ही रामादि के चरित्र की रचना करते समय सुखदुःसात्मक रसों से युक्त ही (काव्यनाटक मादि की) रचना करते हैं। जब कवि को स्वतः दुःसात्मक रस की अनुभूति होती है तो रोहिताश्व के मरण, लक्ष्मण के शक्ति-भेदन प्रादि को देखकर सामाजिक को सुख का मास्वाद कैसे हो सकता है ? [इसलिए करुणादि रसों को सुखात्मक मानना उचित नहीं है। उनका दूसरा तर्क यह है कि मनुकायंगत करुणादि विलापादि युक्त होने के कारण निश्चित रूप से दुःखात्मक ही होते हैं। यदि उनको अनुकरण में सुखात्मक माना जाय तो वह सम्यक् अनुकरण नहीं हो सकता है । तीसरा तर्क है कि इष्टजन के विनाश से दु:खियों के सामने करुणादि का वर्णन किये जाने प्रथवा अभिनय किये जाने पर जो सुखास्वाद होता है वह भी वास्तव में दुःखात्मक ही होता है। . नाट्यदर्पणकार करुण को दुःखात्मक और विप्रलम्भ शृङ्गार को सुखात्मक स्वीकार करते हुए कारण बताते हैं कि-विप्रलम्भ भृङ्गारस्तु वाहादिकार्यत्वाद् दु.खरूपोऽपि सम्भोगसम्भावनागर्भस्वात् सुखात्मकः । अर्थात् विप्रलम्भ शृंगार तो इष्टजन के दाहादि द्वारा विनाश की प्रतीति से जन्य होने के कारण दुःख रूप होने पर भी उसमें सम्भोग (पुनर्मिलन) की सम्भावना बनी रहने से सुखात्मक नाट्यदर्पणकार का रससिद्धान्त अन्य प्राचार्यों के सिद्धान्त से भिन्न है। वे काव्य मोर नाटक में सामान्य-विषयक और विशेष-विषयक विविध रसों की स्थिति मानते हैं ! जहाँ अन्य प्राचार्य लोक में होने वाली स्त्री पुरुष की परस्पर रति को रस नहीं मानते, वहाँ नाटयदर्पणकार लौकिक स्त्री पुरुष आदि को भी विभावादि शब्दों से और उनकी रति प्रादि को भी 'रस' शब्द से निर्दिष्ट करते हैं। ___ग्रन्थकार के मंत से रसानुभूति के पांच प्राधार होते हैं (१) लौकिक रूप में स्थित पुरुष (२) नट (३) काव्य नाटक के श्रोता (४) काव्यनाटक के मनुसन्धाता अर्थात् कवि एवं नाटयकार (५) सामाजिक । अनुकार्य, अनुकर्ता, श्रोता एवं अनुसन्धाता को तो प्रत्यक्ष रूप में रसानुभूति होती है किन्तु सामाजिक को परोक्ष रूप में । रामचन्द्र-गुणचन्द्र के मत से प्रेक्षक मादि में रहने वाला रस लोकोत्तर है और शेष लौकिक । रसभेद संबंधी ग्रंथकार का मत अन्य प्राचार्यों के मत से भिन्न है। यद्यपि रामचन्द्रगुणचन्द्र रस के मूलतः नौ भेद मानते हैं, किन्तु इनके अतिरिक्त तृष्णा को स्थायी भाव मान कर लोल्यरस, आर्द्रता को स्थायिभाव मानकर स्नेह रस, प्रासक्ति को स्थायी भाव मान कर व्यसनरस, परति को स्थायीभाव मान कर दुःख रस, और संतोष को स्थायी भाव मान कर सुख रस की भी अनुभूति वे स्वीकार करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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