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________________ ( ८e ) ने बरु नामक प्राचार्य की रचना का उबरण देकर एक स्थान पर लिखा है-'तुम्बस्लेदमुहम्।' अभिनयभारती के चौदहवें अध्याय में कात्यायन का मत कई श्लोकों में उसृत किया गया है । कात्यायन ने वीरों के भुजदंड के वर्णन में नग्धरा बन्द और नायिका-वर्णन मैं वसन्ततिलका का प्रयोग विहित माना है। इसीप्रकार इसी ग्रन्थ के चोये अध्याय में राहुल नामक प्राचार्य का मत देते हुए अभिनवगुप्त लिखते है-'यथोक्त राहुलेन,' तथा 'ते च यथाह राहुला' विश्वनाथ ने अपने ग्रन्थ साहित्यदर्पण में नखकुट्ट की रचनामों के उद्धरण दिये है। इस प्रकार इस कोटि के प्रमुख नाट्याचार्य हुए-मातगुप्त, दत्तिल, अश्मकुट्ट, बादरायण, शातकी, तुम्बुरु, कात्यायन, राहुल, नखकुट्ट मादि। . . (५) पांचवीं कोटि में वे प्राचार्य प्राते हैं जिनका एकमात्र नामोल्लेख पाया जाता है, किन्तु जिनकी न तो कोई रचना उपलब्ध है, न किसी श्लोक का उसरण ही कहीं पाया जाता है। ऐसे प्राचार्यों में भरत के पूर्ववर्ती है-शिलालिन, कृशाश्व, पूर्तिल, शाण्डिल्य, वात्स्य जिनका उल्लेख भरत के नाटयशास्त्र में पाया जाता है। मभिनवभारती, दशरूपक पौर भावप्रकाशन में सदाशिव, पद्मभू, द्रोहिरिण, व्यास, पाञ्जनेय नामक प्राचार्यों का नाटयकार के रूप में वर्णन मिलता है, परन्तु उनकी किसी रचना का उसरण नहीं पाया जाता । शारदातनय ने अपने ग्रंथ भावप्रकाशन में सुबन्धु का उल्लेख किया है। यदि यह सुबन्धु वासवदत्ता के रचयिता भी है, तो इनका समय पांचवीं शताब्दी में मानना होगा, किन्तु नाटयसम्बन्धी इनकी कोई भी रचना प्राप्य नहीं है। (६) छठी कोटि में वे प्राचार्य माते है जिन्होंने नाटक के सम्बन्ध में कोई स्वतंत्र रचना , न करके केवल भरत नाटयशास्त्र का भाष्य प्रस्तुत किया है । ऐसे भाष्यकारों में प्राचार्य मभिनवगुप्त, कीर्तिघर, नान्यदेव, भट्ट उद्भट, श्रीशंकुक, भट्टयंत्र प्रसिद्ध है। (७) सातवीं कोटि में वे प्राचार्य हैं, जिन्होंने काव्यशास्त्र के सभी अंगों को ग्रहण करके उसके कुछ प्रध्यायों में नाटय-शास्त्र का विवेचन किया है। ऐसे प्राचार्यों में शिङ्गभूपाल, रूपगोस्वामी, भोजराज, विद्यानाथ और विश्वनाथ प्रसिद्ध है । शिङ्गभूपाल ने अपने ग्रन्थ 'रसार्णवसुधाकर' में एक ओर तो 'नाटक-परिभाषा' की रचना केवल नाट्य-विषयों को लेकर की, मोर दूसरी ओर इस ग्रन्थ के अंतिम भाग में काव्य के अन्य विषयों के साथ नाटयशास्त्र पर भी प्रकाश डाला । इसी प्रकार भोजराज ने 'शृंगारप्रकाश' के बारहवें प्रकाश में नाटक का वर्णन किया पौर शेष में साहित्यशास्त्र के समी अंगों का । उन्होंने अपने 'सरस्वतीकण्ठाभरण' के पांचवें परिच्छेद में तो नाटक का विवेचन किया और शेष अध्यायों में काव्यशास्त्र के अन्य अंगों का । विद्यानाथ ने 'प्रतापरुद्रयशोभूषण' नामक ग्रन्थ के केवल तीसरे प्रकरण में नाटक का विवेचन किया पौर विश्वनाथ ने साहित्यर्पण के छठे परिच्छेद में नाटय-सम्बन्धी लक्षणों पर प्रकाश डाला। इन प्राचार्यों ने भरत-नाटयशास्त्र एवं दशरूपक को अपनी रचनामों का भाधार बनाया। उक्त प्राचार्यों में से अधिकांश ने अपने को भरत के नाट्यशास्त्र का ऋगी माना है, किन्तु नाटयदर्पण के रचयिता रामचन्द्र-गुरणचन्द्र बड़े गर्व के साथ अपनी रचना को सर्वथा मौलिक मानते हैं, और भरत-नाट्यशास्त्र पर प्रान्त दशरूपक के मतों का स्थान स्थान पर खण्डन करते है। रामचन्द्र-गुणचन्द्र के पूर्व धनञ्जय और उनके अनुज पनिक की दशरूपक पर अवलोक-वृत्ति का इतना प्रचार हो गया था कि सर्वत्र उक्त ग्रंथ ही समाप्त हो रहा था। धनञ्जय के उपरान्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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