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(ख) नाटयशास्त्रीय ग्रन्थों में नाटयदर्पण का स्थान
नाटपशास्त्र-सम्बन्धी उपलब्ध एवं अनुपरम्प साहित्य का वर्गीकरण करने से हमें प्रमुख नाटपाचार्यों की सात कोटियां मिलती है:
( सरसके पूर्ववती माचार्य जिनकी रचनाओं को मरत ने अपने नाटयशास्त्र में सर्वथा भात्मसात कर लिया है । हम भाचार्यों की रचनाएं अभी तक अप्राध्य हैं।
(२) प्राचार्य भरत जिनका नाटयशास्त्र शताब्दियों तक प्रायः सभी प्राचार्यों की रचनामों का मूलाधार बना रहा ।
(३) मरत के भनुवर्ती प्राचार्य जिनकी रचनाएँ भरत के नाटयशास्त्र पर माधत हैं। इन्होंने कारिकाएं एवं वृत्तियां लिखकर भरत के मत का स्पष्टीकरण किया। इस वर्ग के प्रमुख माचार्य -प्रभिनवगुप्त', धनजय', सागरनन्दी', रामचन्द्र-गुणचन्द्र', शारदातनय, शिङ्गभूपाल, पगोस्वामी, सुन्दरमित्र और नन्दिकेश्वर।
(४) वे प्राचार्य जिनकी सम्पूर्ण रचनाएं तो अनुपलब्ध है, किन्तु अन्य प्राचार्यों ने अपनी रचनामों में जिनका उल्लेख करते हुए कहीं कहीं उनके उद्धरण दिये हैं । उदाहरणार्थ अभिनवगुप्त ने अपने प्रथम अध्याय में नान्दी का विवेचन करते हुए 'कोहलप्रदर्शिता नान्दी' मिल कर यह सिद्ध किया है कि उन्हें कोहल की कोई न कोई रचना उपलब्ध थी जो अब मप्राप्य है ! वे एक स्थान पर भरत से कोहल का मतभिन्य दिखाते हुए वे लिखते हैं : "अनेन तु लोकेन कोहलमतेन एकावशाङ्गत्वमुच्यते । न तु भरते।"
. [पभिनवभारती, अध्याय ६ कारिका १० की वृत्ति] मभिनवगुप्त ने पतिलापार्य के श्लोकों को भी चौदह बार उद्धृत किया है। इससे सिद्ध होता है कि दत्तिल नामक भाचार्य की भी कोई न कोई रचना अभिनवगुप्त को प्राप्त धौ । सागरनन्दी के 'नाटकलमणरत्नकोष' में प्रश्मकुट्ट मोर बादरायण की रचनामों के कई उद्धरण प्राप्त होते है । इसी अन्य में शातकर्णी नामक प्राचार्य के कई उद्धरण पाये जाते हैं । अभिनवगुप्त
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१. रचना-अभिनवभारती -समय बसवीं शताम्बी का अन्त ।
-समय ९७४ से ६४ ई.। नाटकमक्षरणरत्नकोश-समय ११ शतक का पूर्वा। नाटपर्पण --समय १२ शतक का मध्यभाग । भावप्रकाशन -समय १२ पौर १३ शतक के मध्य । नाटकपरिभाषा . -समय १४ शतक । नाटकचमिका -समय १५ शतक ।
नाटयप्रदीप -समय १६१३ई। , अमिनयरर्पण -समय २-३ शती ई० (सम्भवतः)
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