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का० १२५, सू० १७६] तृतीयो विवेकः
. [ ३२१ समुत्थिते धनुर्ध्वनौ भयावहे किरीटिनः ।
महानुपप्लवोऽभवत् पुरे पुरन्दरद्विषाम् ॥" अत्र नायकस्य वीरः, प्रतिपक्षाणां तु भयानकः । यथा वा
"दन्तक्षतानि करजैश्च विपाटितानि, प्रोद्भिन्नसान्द्रपुलके भवतः शरीरे। दत्तानि रक्तमनप्ता मृगराजवध्वा
जातस्पृहैमुनिभिरप्यवलोकितानि॥" अत्र तस्मिन्नेव प्रकमे मुनि-कामुकयोभिन्नयोन शृङ्गार-शान्तौ विरुद्धाविति ।
तथा स्वैरिणोः स्वतन्त्रयोः सतोर्विरुद्धयो रसयोर्विरुद्धता, न तु परतन्त्रस्वतन्त्रयोः, मुख्यस्यायत्तयोर्वा यथा
"कुरबक ! कुचाघातक्रीडासुखेन वियुज्यसे, बकुलविटपिन् ! स्मर्तव्यं ते मुखासवसेचनम् । चरणघटनाशून्यो यास्यस्यशोक ! सशोकतां,
इति निजपुरत्यागे यस्य द्विषां जगदुः स्त्रियः ॥" मर्जुनके भयावह धनुषके ध्वनिके उदय होनेपर इन्द्र के शत्रुप्रोंके नगरमें बड़ी घबराहट फैल गई। . इसमें [वीर तथा भयानक दो रसोंका वर्णन है। ये दोनों रस एकाधयमें होनेपर विरोधी माने जाते हैं। यहां उन दोनोंके प्राधयका भेद कर दिया गया है। इसलिए उनमें विरोष नहीं रहता है] । नायक [अर्जुन] में वीर रस है और शत्रुनों में भयानक रस है [इसलिए प्राषयभेद हो जानेसे उनमें विरोध नहीं रहा ।
अथवा जैसे
रक्तपानको इच्छा करने वाली [दूसरे पक्षमें अनुरागपूर्ण मन वाली] मृगराजको वधू [सिंहनी दूसरे पक्षमें किसी राजाकी पत्नी ने प्रापके रोमाञ्चयुक्त शरीरके ऊपर जो बन्तप्रहार पोर नखोंसे विपाटनके चिन्ह बनाए हैं उनको मुनियोंने भी सस्पृह होकर [अर्थात हम भी इन वन्तक्षत नखाक्षतोंसे विभूषित होते इस इच्छासे] देखा।
यहां उसो प्रसङ्गमें मुनि और कामुक दो भिन्न प्रापयोंमें रहने वाले शांत और मृङ्गार रसोका विरोध नहीं है।
___इसी प्रकार [को विरोधी रसोंके] स्वतन्त्र रूपसे [परिणत] होनेपर ही विरोध होता है एकके परतन्त्र और दूसरेके स्वतन्त्र होनेपर अथवा दोनोंके किसी तीसरे मुल्य रसके अधीन होनेपर [उनका विरोष] नहीं होता है । जैसे
हे कुरबक ! [वृक्ष विशेष, हमारे यहाँसे चले जानेपर तुम [हमारे द्वारा प्राप्त होने वाले कुचाघातके सुखसे वंचित हो जानोगे । हे बकुल ! [मौलश्रीके वृक्ष] तुम्हें हमारे द्वारा प्राप्त होने वाले मरके कुल्ले द्वारा सेचनकी याद माया करेगी। हे मशोक ! हमारे बरल प्रहारसे वञ्चित हो जानेपर तुम शोकयुक्त हो जानोगे। जिसके [भयके कारण उसके शमोंको स्त्रियां इस प्रकार इन वृक्षों को सम्बोषित करके कहती थीं।
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