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________________ ( २ ) मर्थात्, क्या पर्वत के नितम्ब (प्रान्तर भाग) सेवनीय है अथवा विलासिनियों के नितम्बइस कथन में प्रकरणाभाव के कारण यह सन्देह बना रहता है कि यह उदाहरण शान्त रस का है अथवा श्रृंगार रस का। रिहरति रति ..." पद्य तथा इस पद्य में समस्या एक ही है कि दो रसों में से इसे किस रस का उदाहरण माना जाए । किन्तु साथ ही दोनों पद्यों में अन्तर है वह यह कि एक में श्लेष थे. कारण सन्देह है और दूसरे में इसके बिना । वस्तुतः अन्वयव्यतिरेक-सम्बन्ध के आधार पर 'सेव्या नितम्बा।' कपन में प्रदोषता की अपेक्षा पददोषता प्रधिक है, जैसे कि स्वयं मम्मट ने पदगत सन्देह का ऐसा हो उदाहरण प्रस्तुत किया है-"माशीःपरम्परा वन्द्यां कर्णे कृत्वा कृपां कुछ।" इसमें वन्द्याम्' का अर्थ सन्दिग्ध है । क्या इसका प्रयं 'वन्दनीया अर्थात् नमस्करणीया को' है, अथवा वन्द्याम् बन्द्याम्) का अर्थ 'बन्दीकृत पहिला में है ? किन्तु 'सेव्याः नितम्बा...' में रस-विषयक सन्देह है जो के श्लेष' पर आधारित है, और 'पाशी:परम्परां वन्द्याम्...' में श्लेष तो है किन्तु यहां रस-विषयक सन्देह नहीं है। अत: 'प्राधान्येन व्यपदेशाः भवन्ति' के अनुसार प्रथम पद्य में रसदोष है और वितीय पद्य में परदोष । 'श्लेष' के सम्बन्ध में प्राचार्यों की स्पष्ट धारणा है कि इसकी स्थिति तब माननी चाहिए जब यह स्वतन्त्र रूप में प्रयुक्त हो।' इसकी परतन्त्र अथवा गौण स्थिति में प्रधानता उस काम्य-तत्व की माननी चाहिए जिसका यह पोषक हो। उक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि 'सेव्याः नितम्बा:...' और 'परिहरति रति..." इन दोनों पद्यों में सन्दिाध नामक रसदोष ही है. किन्तु एक अन्तर के साथ-प्रथम में श्लिष्ट सन्दिरध दोष है और दूसरे में पश्लिष्ट, पर दोनों हैं रसगत ही । क्योंकि दोष की दृष्टि से रस-निर्णय में सन्दिग्धता का बना रहना ही दोनों का प्रतिपाद्य है। 'परिहरति रति...' में 'विभाव की कष्टकल्पना द्वारा अभिव्यक्ति' नामक दोष की स्वीकृति इसलिए नहीं माननी चाहिए कि विभावादि तो रस-सिद्धि के लिए साधन है। इस पद्य में रस का निर्णय सन्दिग्ध रह जाने के कारण सन्दिग्ध दोष मानना चाहिए और वह भी रसगत । निष्कर्षतः रामचन्द्र-गुणचन्द्र की यह धारणा कि यहाँ वाक्यगत सन्दिग्ध दोष है अंशतः मान्य है, क्योंकि यहां सन्दिग्ध दोष रसगत ही है वाक्यगत नहीं। ८. रस नाटयदर्पण में अन्य काव्योपकरणों के समान रस पर भी केवल इस दृष्टि से प्रकाश हाला गया है कि इसका रूपक के साथ क्या सम्बन्ध है, कौन कौन से रस इसके विभिन्न भेदों अथवा अंगों के साथ सम्बद्ध है प्रादि । उदाहरणार्थ-'भाण' रूपक में शृंगार और वीर रस की प्रचामता होती है, 'डिम' में रौद्र रस की तथा 'उत्सृष्टाई' में करुण रस की, और वीथी' का सम्बन्ध सब रसों के साथ होता है, इत्यादि।''भारती' नामक नाटयवृत्ति सब रसों के साथ सम्बद्ध होती है, 'सास्वती' रौद्र, वीर, शान्त भोर मद्धत रसों के साथ, 'कशिकी' हास्य और शृंगार रस के साथ, तथा 'मारभी' रौद्र भादि दीप्त रसों के साथ ।' इसी प्रकार रूपकों में कौन कौन से रस परस्पर मित्र होते है तथा कोरा विरोधी भोर विरोधी, रसों का परिहार किस प्रकार किया पाए, प्रावि-इन बहुचर्चित विषयों पर भी इस अन्य में प्रकाश डाला गया है । १. मेषस्य चोपमासमंकारविवित्तोऽस्ति विषयः इति। [फा० प्र० ६ म उ०, इलेवप्रकरण] २. हिन्दी मारवल २/१६, २१, २३, २८ । १. ३/२, ५, ६। ४. वही पृष्ठ ३२० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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