________________
का० २३-२४, सू० २० ]
प्रथमो विवेकः
[ ५३
अरञ्जकं च रञ्जकमपि एकदिनाशक्याभिनयं च प्रेक्षकैः साक्षादनुपलभ्यमानं 'श्रङ्कानर्हम्' | 'त्रिकालस्य' वृत्त-वर्त्स्यद् - वर्तमानकालस्य | अनुरञ्जिनेति समस्तेन श्रदीर्घसमासेन च प्रसन्नेन । 'संक्षिप्य' विततमपि उत्तराङ्कसन्धानोपयोग्येव कृत्वा ।' संस्कृतेनेति शुद्धविष्कम्भकापेक्षम् । सङ्कीर्णे तु संस्कृतेनासंस्कृतेनापि च, नीचपात्रस्यापि तत्र भावात् ।
अङ्कादाविति प्रथमेऽङ्के श्रमुखादूर्ध्वम्, अन्येषु पुनरारम्भे इति तावत् सर्वे समामनन्ति । कोहलः पुनरेतं प्रथमाङ्कादावेवेच्छति ।
किन्तु उसमें केवल शुद्धविष्कम्भूक के पात्रोंकी भाषा संस्कृत होती है । सङ्कीर्ण विष्कम्भक में जो मध्यम पात्र हों वे ही संस्कृत बोलते हैं भोर नीच पात्र प्राकृत भाषाका ही अवलम्बन करते हैं । टीका में तो इस भेदका उल्लेख किया गया है किन्तु मूल में उसको उल्लेख न होनेसे अर्थ स्पष्ट नहीं हो पाता है ।
४. 'अङ्कसन्धायकः' तथा 'शक्यसन्धानातीतकालवान्' ये दो पद जो लक्षण में रखे गए हैं वे अधिक स्पष्ट हैं । 'मङ्कसन्धायकः' का अभिप्राय यह है कि विष्कम्भक दो अङ्कोंके बीच कथा भागको जोड़कर कथासूत्रको प्रविच्छिन्न बनाता है। मोर 'शक्या सन्धानातीतकालवान्' का अभिप्राय यह है कि अतीतकालकी जिन घटनाओं का उल्लेख उसमें किया जाता है वे घटनाएँ बहुत अधिक पुरानी नहीं होनी चाहिए। केवल उतनी पुरानी हों जिनका स्मरण सामान्य रूपसे मनुष्यको रह सकता है ।
५. पांचवीं बात यह है कि विष्कम्भककी रचना अङ्कके प्रारम्भ में ही की जाती है । अन्त में या बीचमें नहीं । 'अङ्कादी' का यह भी अभिप्राय है कि यह विष्कम्भक प्रथम प्रमें. भी रखा जा सकता है । किन्तु वहाँ यह प्रामुखके बाद हो मा सकता है उसके पहले नहीं । अन्य मोंमें अंक प्रारम्भमें होता ही है ।
इन्हीं सब बातों को लेकर व्याख्याकार इन श्लोकोंकी व्याख्या निम्न प्रकार करते हैं
[रक अर्थात् ] नीरस, अथवा सरस होनेपर भी [प्रत्यन्त विस्तीर्ण होनेके कारण ] जिसका अभिनय एक दिनमें करना सम्भव न हो [ इसीलिए ] प्रेक्षकोंको साक्षात् [ प्रभिनय द्वारा ] न दिखलाया जाने वाला [कथाभाग ] श्रङ्कनाई [ श्रंक में न दिखलाने योग्य ] है । तीनों कालका प्रर्थात् भूत, भविष्यत् तथा वर्तमानकालका । 'अनुरंजिना' [संस्कृतेन] इससे सर्वथा समास-रहित अथवा छोटे-छोटे समासों वाले सरल [प्रसन्न ] संस्कृतके द्वारा। 'संक्षिप्य' प्रर्थात् fatati [कथाभाग ] को भी अगले अंकका सम्बन्ध जोड़ने मात्र [संक्षिप्त ] बना कर [कहलाना ] । 'संस्कृतेन' [ संस्कृत भाषाके द्वारा कहलाना ] । यह केवल शुद्ध-विष्कम्भकको दृष्टिसे कहा गया है । सङ्कीर्ण [ विष्कम्भक ] में तो संस्कृत और [प्रसंस्कृत अर्थात् ] प्राकृत से भी [अर्थात् दोनों भाषाओं के द्वारा वृत्त कहलाया जाता है] क्योंकि उसमें नीच पात्र भी होते हैं [वे संस्कृत नहीं बोल सकते हैं । अतः वे प्राकृत भाषामें भावरण करते हैं और जो मध्यम पात्र होते हैं वे संस्कृतभाषामें । इस प्रकार सङ्कीर्ण विष्कम्भक में संस्कृत तथा प्राकृत दोनों भाषाओंका उपयोग होता है ] ।
'प्रावो' प्रङ्कके प्रारम्भमें इससे [यह अभिप्राय है कि ] प्रथम प्रङ्क में [प्रमुख प्रर्थात् प्रस्तावनाके बाद, और शेष प्रङ्कोंमें प्रङ्कके प्रारम्भमें ही [ विष्कम्भककी रचना होना चाहिए
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org