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________________ नाट्यदर्पणम् [ का० २३-२४, सू०२० अथ प्रथम विष्कम्भकं शुद्धाशुद्धभेदं लक्षयति[सूत्र २०]-अकानहस्य वृत्तस्य त्रिकालस्यानुरजिना । संक्षिप्य संस्कृतेनोक्तिरङ्कादौ मध्यमै जनैः ॥२३॥ शुद्धो विष्कम्भकस्तत्र सङ्कीर्णो नीच-मध्यमैः । अङ्कसन्धायकः शक्यसन्धानातीतकालवान् ॥२४॥ विष्कम्भकलक्षण पिछली कारिकामें ग्रन्थकारने नाटकके प्रकों में जिन बातोंका साक्षात् रूपसे दिखलाना वजित है उनका उल्लेख किया था। इनमें से दूराध्वयान प्रादि कुछ कार्य प्रभूतकाल-साध्य या प्रभूत श्रमसाध्य होनेसे, कुछ कार्य व्रीडादायी होने से, और कुछ कार्य प्रात वृदायी होने के कारण अङ्कानह प्रक्षों में साक्षात् रूपसे दिखलाने के अयोग्य माने गए हैं। परन्तु कथाभागकी सङ्गति बनाए रखने के लिए इन भागोंकी भी सर्वथा उपेक्षा नहीं की जा सकती है। इसलिए प्रेक्षकोंको इन कथाभागोंसे परिचित कराने के लिए 'विष्कम्भक' प्रादि पांच प्रकारके 'मर्थोपक्षेपकों की रचनाकी व्यवस्था नाट्यशास्त्र में की गई है। इन 'अर्थोपक्षेपकों में सबसे मुख्य 'विष्कम्भक' है। इसलिए अगली दो कारिकामोंमें ग्रन्थकारने 'विष्कम्भक' का लक्षण निम्न प्रकार किया है। __ अब [पांचों 'अर्थोपक्षेपकों' में सबसे पहले शुद्ध और अशुद्ध भेव वाले [दो प्रकारके] 'विष्कम्भक' का लक्षण करते हैं [सूत्र २०]-[अब उन [पांचों प्रकारके 'अर्थोपक्षेपकों] मेंसे [भूत भविष्यत् और वर्तमान तीनों कालोंके [अडानह] अडोंमें न दिखलाने योग्य वृत्त [कथाभाग] को अड्के प्रारम्भमें संक्षिप्त करके मध्यम पात्रों के द्वारा संस्कृतमें कहलानेको 'शुद्ध विष्कम्भक' [कहते है] मोर नीच तथा मध्यम पात्रोंके द्वारा संस्कृत तथा प्राकृत भाषामें कहलानेका यत्न] सहोणं [विष्कम्भक कहलाता है। [शुद्ध और सङ्कीर्ण दोनों प्रकारका विष्कम्भक पङ्क कि प्रतिपाद्य विषयको सङ्गति] को जोड़ने वाला [अथवा दो अड्के बीचके कथाभागकी सङ्गतिको जोड़ने वाला 'प्रसन्धायक होता है] और जितने कालकी स्मृति सम्भत्र हो उतने प्रतीतकाल [की स्मृति कराने वाला [शक्यसन्धानातीतकालवान होता है ।२३-२४॥ ___ग्रन्थकारने यह 'विष्कम्भक' का लक्षण किया है । लक्षणकी रचनाशली कुछ अस्पष्टसी प्रतीत होती है । इसलिए उसको ठीक तरहसे समझने के लिए विशेष प्रयत्न करने की प्रावश्यकता है । इस लक्षणमें निम्न बातें समाविष्ट की गई हैं १. विष्कम्भकमें अङ्कानह पर्थात् जिसका नाटकके प्रकोंमें दिखलाना उचित नहीं है उन्हीं बातोंका समावेश किया जाता है। २. उस अङ्कानह भागको मध्यमपात्रोंके द्वारा अथवा नीच भोर मध्यम दोनों प्रकार के पात्रों द्वारा कहलाया जाता है। केवल मध्यम पात्रोंके द्वारा कहालाया जाने पर 'शुद्ध-विष्कम्भक' तथा नीच-मध्यम द्विविध पात्रों द्वारा कहलाए जाने पर 'संकीर्ण विष्कम्भक' होता है। ३. विष्कम्भकमें प्रर्थकी सूचना देने वाले पात्राकी भाषाका भी उल्लेख किया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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