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________________ ५४ ] नाट्यदर्पणम् [ का० २३-२४, स० २० मध्य मैरिति श्रमात्य सेनापति वणिग् विप्रादिभिः । न पुनर्देवी कुमारनायक प्रतिनायकादिभिः । मध्यमत्वं चैषा राजापेक्षया । राजपरिजनापेक्षया तु तेऽपि प्रधानम् । जनैरिति पुम्भिः, स्त्रीभिः, स्त्री- पुसैश्च सामान्यवाधित्वात् । बहुवचनमतन्त्रम् । तेनैकेनापि स्वगतेनाकाशोक्त्या च निबध्यते । जनैरिति सामान्यनिर्देशादेव च शुद्धविष्कम्भे स्त्रिया अपि संस्कृतेनैव पाठः । शुद्धो नीचाप्रवेशात् । विष्कस्नाति अनुसन्धानेन वृत्तमुपष्टम्भयति इति विष्कम्भकः । 1 तत्रेति विष्कम्भादिषु पञ्चसु मध्यात् द्विभेदत्वेन विष्कम्भको निर्धार्यते । अथ सङ्कीर्णो नीचस्यापि प्रवेशात् । नीचा दास चेट्यादयः । 'अङ्कसन्धायक' इति अङ्कस्य यह बात [ नाट्यशास्त्र] सब [ श्राचार्य ] मानते हैं । किन्तु कोहल [नामक नाट्याचार्य ] इसको केवल प्रथम प्रङ्कके प्रारम्भमें ही मानते हैं । इसका अभिप्राय यह हुआ कि भरत ग्रादि अन्य सब नाट्याचार्योंके मत में नाटकके किसी भी प्रङ्क में प्रावश्यकतानुसार विष्कम्भकका प्रयोग किया जा सकता । किन्तु केवल इतना ध्यान रखना है कि जब कभी भी विष्कम्भकका प्रयोग किया जाय वह सदा अके प्रारम्भ में ही होना चाहिए। बीचमें या अन्त में नहीं । किन्तु कोहलाचार्यका मत इससे भिन्न है । उनका यह कहना है कि विष्कम्भकका प्रयोग केवल प्रथम प्रङ्कके प्रारम्भ में ही किया जा सकता है । अन्य अङ्कोंमें उसका प्रयोग नहीं हो सकता है । या फिर प्रके मध्य अथवा अन्त में कहीं भी किया जा सकता है । 'मध्यम:' इस पदसे श्रमात्य सेनापति वणिक् विप्र श्रादिके द्वारा [ यह अर्थ करना चाहिए ] । महारानी, राजकुमार, नायक, 'प्रतिनायक' श्रादिके द्वारा [ यह श्रर्थ] नहीं [ लेना चाहिए ] । इन [ श्रमात्य सेनापति श्रादि ] का [भी] मध्यमत्व राजाकी दृष्टिसे है । राजाके श्रन्य सेवकों st अपेक्षासे तो वे भी प्रधान हैं । 'जनै:" इस पदसे [पदके ] सामान्य वाचक होनेसे पुरुषोंके द्वारा, अथवा स्त्रियोंके द्वारा, अथवा स्त्री और पुरुष दोनोंके द्वारा यह अर्थ ग्रहण [करना चाहिए। इसमें ] बहुवचन श्रविवक्षित है। [प्रर्थात् बहुतसे पात्र ही प्रयुक्त किए जायें यह इस बहुवचनान्त 'जनै:' पदका अभिप्राय नहीं है ] । इसलिए 'स्वगत' अथवा 'श्राकाशभाषितके रूपमें एक पात्रके द्वारा भी [अपेक्षित अर्थको कहला कर विष्कम्भकका] प्रयोग किया जाता है । 'जन' इस सामान्य निर्देशके कारण ही शुद्ध विष्कम्भकमें स्त्रियोंके द्वारा भी संस्कृतमें ही पाठ किया जाता है। [इसका अभिप्राय यह है कि सामान्य रूपसे स्त्रियोंके मुखसे प्राकृत भाषाका ही प्रयोग नाटकोंमें कराया जाता है किन्तु शुद्ध विष्कम्भकमें यदि कोई मध्यम स्त्रीपात्र हो तो उसको संस्कृतमें भाषरण कराया जा सकता है] । शुद्ध [ विष्कम्भक ] नीच [पात्रों] का प्रवेश न होनेसे [ही शुद्ध कहलाता ] है । [आागे विष्कम्भक शब्दका निर्वचन दिखलाते हैं ] 'विष्कम्नाति' अर्थात् स्मृतिके द्वारा कथाभागको [ जोड़कर ] पुष्ट बनाता है इसलिए [ उसको ] 'विष्कम्भक' कहा जाता है [ यह विष्कम्भक शब्दका प्रवयवार्थ है ] । 'तत्र' इससे 'विष्कम्भक आदि पांच [अर्थोपक्षेपकों] के मध्यमेंसे [शुद्ध तथा संकीर्ण रूप] दो भेद वाला 'विष्कम्भक' अलग निर्धारण किया गया है [ यह बात 'तत्र' पदसे सूचित की है । 'सप्तम्यास्त्रल्' सूत्रसे सप्तमीके अर्थ में त्रल् प्रत्यय करके 'तत्र' शब्द बना है । शौर 'यतश्च निर्धारणम्' [जिससे किसी वस्तुको चुन कर अलग किया जाय उस निर्धारणमें सप्तमी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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