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प्रथमो विवेकः
का० २३-२४, सू० २० ] [ ५५ अङ्कार्थस्य सन्धायकः संसूचकः प्रथमाङ्कभावी । श्रङ्कयोरङ्कार्थयोः सन्धायकः पुन: रङ्कद्वयान्तरालभावी । शक्यं सन्धानमनुस्मरणं यस्यासौ शक्यसन्धानः । स चासावतीतकालो वृत्तोऽर्थस्तद्वान विष्कम्भको भवति । इह तावत् पुरुषप्रज्ञापेक्षया विष्कम्भ कार्य कालो निबध्यते । रामयुधिष्ठिरादयो हि चिरातीतमध्यर्थमनुसन्दधतीति स तथैव निवध्यते । ये तु प्राकृताः स्तोककालमेवार्थमनुसन्दधते तदर्थस्तथैव निषन्धनीयः । कामफले तु नाटके वर्षैकवृत्तमेव निबध्यते । परतः संस्कार विच्छेदात् । वयोऽतिवृत्तेश्चेति ।।२३-२४||
विभक्ति होती है । अतः यहाँ सप्तमी विभक्तिके द्वारा बने 'तत्र' पवसे निर्धारण - छांटना
लग करना सूचित होता है यह अभिप्राय है ] । श्रागे सङ्कीर्ण [ विष्कम्भकको] नीच [पात्र] का भी प्रवेश होनेसे [सङ्कीर्ण विष्कम्भक ] कहते हैं । नीच अर्थात् वास वासी प्रावि । 'अङ्कसन्धायक:' इससे [ दो अर्थ निकलते हैं। एक तो यह है कि] का अर्थात् एक अके अर्थका सन्धायक अर्थात् संसूचक । इस प्रकारका [ एक प्रङ्कका प्रर्थात् एक प्रजुसे सम्बद्ध saint सूचक जो faoकम्भक होता है वह ] प्रथम प्रङ्कके आरम्भमें ही होता है। ['असन्धायकः' का दूसरा अर्थ यह भी है कि] दो श्रङ्कोंका अर्थात् दो प्रङ्कोंके प्रथों का सन्धायक अर्थात् सम्बन्ध कराने वाला [जोड़ने वाला ] वह दो अङ्कोंके बीच में [अर्थात् उत्तरवर्ती प्रजूके प्रारम्भमें ] होता है । [श्रागे 'शक्यसन्धानातीतकालवान्' पदका अर्थ उसको दो भागों में विभक्त करते हैं । पहले 'शक्यसन्धान' इस भागका अर्थ करते हैं] जिसका सन्धान प्रर्थात् मनुस्मरण हो सकता है [ उतना प्रतीतकाल शक्यसन्धान हुआ ] । इस प्रकारका [ शक्यसन्धान] जो श्रतीतकाल अर्थात् श्रतीत कालमें हुम्रा कथाभाग उससे युक्त [अर्थात् उसको सूचित करने वाला ] विष्कम्भक [ 'शक्यसन्धानातीतकालधान्' विष्कम्भक हुआ ] । [ इसमें पुरुषोंकी स्मरणशक्ति [ प्रज्ञा ] की अपेक्षासे विष्कम्भकके [अर्थात् कथाभाग] के कालको [ शक्यसन्धान : जिसका स्मरण सम्भव हो सके इसके अनुसार ] निबद्ध किया गया है। राम युधिष्ठिर आदि [ प्रबल स्मरणशक्ति वाले उत्तम पात्र) बहुत पुराने प्रतीत अर्थको भी स्मरण कर सकते हैं इसलिए [विष्कम्भक में उनके स्मरणसे सम्बन्ध रखनेवाली दीर्घकालीन बात भी कही जाती है वहाँ ] उसको उसी प्रकारसे दिखलाया जाता है । और जो साधारण पुरुष थोड़ी देरकी ही बात स्मररण कर सकते हैं उनके लिए उसी प्रकारको रचना करनी चाहिए । कामप्रधान फलवाले नाटक में तो [ विष्कम्भकके रूपमें] एक ही वर्षके वृत्तको रचना की जाती है। उसके बाद [अर्थात् एक वर्षसे अधिककालके प्रेमके] संस्कारोंका विच्छेद हो जाता है औौर अवस्था बीत जानेसे भी । [शृङ्गार रसमें अधिक पुरानी बातोंका स्मरण व्यर्थ हो जाता है] 1
॥२३-२४॥
'fassम्भक' के इस लक्षणमें ग्रन्थकारने 'शक्यसन्धानातीतकालवान्' 'इस विशेषरण की व्याख्यापर विशेष बल दिया है। उतने दूरके प्रतीत कालके अर्थकाही वर्णन 'विष्कम्भक' द्वारा करना चाहिए, जिसका अनुसंधान अर्थात् स्मरण सम्भव हो । राम युधिष्ठिर मादि दीर्घकालीन को भी स्मरण कर सकते हैं, प्रतः उनके वृत्त में दीर्घकालीन घटना का भी वन किया जा सकता है । सामान्य पुरुष स्वरूप कालके अर्थको स्मरण कर सकते हैं, उनके प्रसङ्ग में उसीके अनुसार विष्कम्भक में वर्णन करना चाहिए। यह ग्रन्थकारका अभिप्राय है ।
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