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________________ का० १००, सू० १५१ ] श्रपि चास्मदुपज्ञे 'सुधाकलशे' "लच्छी गिड़ी भूसा अपत्तविज्जारण सा पुरो गरुई । तत्तो पढेज्ज विज्जं श्रजम्मदुई कर सकन्नो ॥ [लक्ष्मीगृहिणां भूषा, अप्राप्तविद्यानां सा पुनर्गुर्वी । ततः पठेद् विद्यामाजन्मदुःखकरां सकर्णः । इति संस्कृतम् ]" निर्वेदाद विबुधैर्विद्या गुणोऽपि दोषीकृतः । दोषस्य गुणीकरणं यथा वेणीसंहारे कञ्चुकिना सह विवादे" दुर्योधनः -- सूक्तमिदं कस्यापि - ➖➖ द्वितीयो विवेकः गुप्तः साक्षात् महानल्पः स्वयमन्येन वा कृतः । करोति महतीं प्रीतिमपकारोऽपकारिणाम् ॥ येनाथ द्रोण-कर्ण-जयद्रथादिनिहतमभिमन्युमुपश्रुत्योच्छ वसिंतमिव 'नश्चेतसा । ' अत्र क्षत्रधर्मं त्यक्त्वा श्रभिमन्युर्निहत इत्ययं दोषः, स्वप्रीतिहेतुत्वेन गुणीकृतः । यथा वा नलविलासे " सर्वेषामपि सन्ति वेश्मसु कुतः कान्ताः कुरङ्गीदृशो, न्यायार्थी परदार विप्लवकरं राजा जनं बाधते । आज्ञां कारितवान् प्रजापतिमपि स्वां पञ्चवाणस्ततः, कामार्तः क्व जनो व्रजेत् परहिताः पण्याङ्गनाः स्युर्न चेत् ॥” और जैसे हमारे बनाये हुए सुधाकलशमें भी लक्ष्मी गृहस्थोंका भूषण है, श्रौर विद्या न पढ़े हुए का वह और भी बड़ा भूषरण है । इसलिए श्राजन्म दुःख देने वाली विद्याको [सकर : बड़े कानोंवाला गदहा ] मूर्ख ही पढ़ेगा । यहाँ विद्या रूप गुणोंको भी देवोंने निवेदके वशीभूत होकर दोष बना दिया है। दोषको गुरंग बना देना जैसे वेरंगी संहार में कचुकी के साथ विवाद में— दुर्योधन - यह किसीका कथन बड़ा सुन्दर है कि पने [ अपकारियों अर्थात्] शत्रुनोंके प्रति गुप्त रूपसे प्रथवा साक्षात् रूपसे छोटा वा बड़ा स्वयं या दूसरेके द्वारा किया जाने वाला अपकार भी प्रत्यंत प्रानन्ददायक होता है । इसीलिए आज द्रोण, कर्ण, जयद्रथ प्रादि [सात महारथियों ] के द्वारा अभिमन्युके मारे जानेका समाचार सुनकर हमारा चित्त प्रसन्न हो उठा है । [ २६५ यहाँ क्षात्र धर्मका परित्यागकर के [सात महारथियोंने मिलकर ] ग्रभिमन्युको मार दिया यह [ धर्मविरुद्ध होनेसे ] दोष होनेपर भी अपनेलिए आनन्ददायक होनेसे गुरण बना दिया गया है । श्रथवा जैसे नलविलास में - Jain Education International सब लोगों के घरमें तो मृगनयनी [सुन्दरी] स्त्रियां कहाँसे हो सकती हैं और न्यायकारी राजा दूसरोंकी स्त्रियोंको बिगाड़नेवाले लोगोंको दण्ड देता है । और कामदेवने स्वयं प्रजापतिसे भी अपनी आज्ञा पालन करवा ली [ अर्थात् प्रजापति सदृश भी जब कामपर विजय प्राप्त न कर सके तब सामान्य मनुष्य कामपर विजय प्राप्त कर सकेगा यह तो प्रसम्भव ही है । ऐसी दशामें] यदि वेश्याएं न हों तो कामातं-जन [ अपनी तृप्ति के लिए] कहाँ जाय ? १. उपसुतेद्धसितमिव । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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