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________________ २६६ ] नाट्यदर्पणम् [ का० १००, सू० १५१ भत्र पण्यस्त्रीत्वं दोषः शृङ्गारपुष्ट यर्थं गुणीकृतः । मपि च यथा 'सुधाकलशे' ताण नमो निग्गुणसेहराण गुणिसलहिज्जजम्माणं । निअगुणविहलत्तभवा सिविणे वि न जाण अरईउ ॥ [ तेभ्यो नमो निर्गुणशेखरेभ्यो गुणिश्लाध्यमानजन्मभ्यः । निजगुणविफलत्वभवाः स्वप्नेऽपि न येषामरतयः ।। इति संस्कृतम् ]" अत्र निर्वेदाद् गुणिभिनिर्गुणत्वं दोषोऽपि गुणीकृतः। उभयमेकत्र यथा “सन्तः सच्चरितोदयव्यसनिनः प्रादुर्भवद्यन्त्रणाः, सर्वत्रैव जनापवादचकितास्तिष्ठन्ति दुःखं सदा । अव्युत्पन्नमतिः कृतेन न सता नैवासता व्याकुलो, युक्तायुक्तविवेकशून्यहृदयो धन्यो जनः प्राकृतः॥ अत्र सत्त्वं गुणोऽपि दोषीकृतः । प्राकृतत्वं तु दोषोऽपि गुणीकृत इति । (११) अथोद्घात्यकम्-- [सूत्र १५१]-परस्परं स्यादुधात्यं गूढभाषणम् ॥ [३५] १०० ॥ ' पृच्छक-प्रतिवक्त्रोरन्योन्यं गूढार्थमुक्ति-प्रत्युक्त यात्मक भाषणं उद्घाते प्रश्नात्मके साधु उद्घात्यम् । यदा प्रष्टा विवक्षितोत्तरदानसमर्थः किन्तु यन्ममाभिप्रेतं तद् युक्तमयुक्तं वेत्यभिसन्धाय पृच्छति, प्रतिवक्ता चोचितमभिधत्ते तदा उद्घात्यमित्यर्थः। यहां वेश्यात्व रूप दोष भी शृङ्गारकी पुष्टिके लिए गुरण बना दिया गया है । पौर भी जैसे सुधाकलशमें गुरिणजन भी जिनके जन्मको प्रशंसा करते हैं उन निर्गगा-शिरोमणियोंको नमस्कार है। क्योंकि अपने गुणके विफल हो जानेका दुःख उनको स्वप्नमें भी नहीं होता है। यहाँ गुरिणयोंने वैराग्यके कारण निर्गुणत्वं रूप दोषको भी गुण बना दिया है। [रोषको गुरण बना देना और गुरणको दोष बना देना इन दोनोंका एकसाथ उदाहरण जैसे उत्तम कार्योंके करनेके अभ्यासी सज्जन पुरुष लोकापवादके भयसे यन्त्रणाग्रस्त और सदा कष्टमें रहते हैं। किन्तु उचित-अनुचितके विचारसे रहित, इसलिए की हुई भलाई-बुराईसे व्याकुल न होने वाले मूर्ख साधारण लोग धन्य हैं। यहाँ सज्जनता रूप गुणको भी दोष बना दिया गया है और मुर्खता रूप दोषको भी गुरग बना दिया गया है। (११) उद्घात्यक नामक ग्यारहवाँ वीथ्यङ्ग जब 'उद्घात्थक'का [का लक्षण प्रादि करते हैं]-- [सूत्र १५१]-परस्पर गूढ़भाषणको 'उद्घात्यक कहते हैं । १०० ॥ प्रश्नकर्ता और उत्तर देने वाले दोनोंके बीच परस्पर गूढार्थयुक्त उत्तर-प्रत्युत्तर रूप भाषण प्रश्नात्मक उद्घातमें साधु होनेसे 'उद्घात्यक' कहलाता है। जब पूछने वाला स्वयं विवक्षित उत्तर देनेमें समर्थ होनेपर भी, जो मेरा अभिप्रेत अर्थ है वह उचित है या मनु. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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