SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 381
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६४ ] नाट्यदर्पणम् [ का० १००, सू० १५९ राजा - [ सोपहासम् ] एवमेतत् । सर्वजनप्रसिद्धमेवामर्षित्वं पाण्डवानाम् । पश्य हस्ताकृष्टविलोलके शवसना दुःशासनेनाज्ञया, पांचाली मम राजचक्रपुरतो गौगौरिति व्याहृता । तस्मिन्नम्ब स किं न गाण्डिवधरो' नासीत् पृथानन्दनो, यूनः क्षत्रियवंशजस्य कृतिनः क्रोधास्पदं किं न तत् । ?” अत्र धनुर्धरत्वादयो गुणा दोषीकृताः । यथा नलविलासे " राजा - देवि ! उपालभ्यसे आभ्यन्तर परिजनापराधेन । दमयन्ती - कह विय ? [ कथमिव ] ? राजा - वक्त्रेन्दुः स्मितमातनोदधिगते दृष्टी विकासश्रियं, बाहू कण्टककोरका विभृतां प्राप्ता गिरो गौरवम् । किं नाङ्गानि तवातिथेयमस्सृजन् स्वस्वापतेयोचितं, सम्प्राप्ते मयि नैतदुज्झति कुचद्वन्दं पुनः स्तब्धताम् ॥” अत्र स्तब्धता स्तनगुणो दोषी कृतः । राजा--- - [ उपहास करता हुआ ] अच्छा यह बात । [पाण्डवोंके कोपसे हमें डरना चाहिए] किन्तु पाण्डवोंका कोप तो सब लोग जानते हैं [कि वे कोप करके भी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते हैं ] | देखो मेरी प्राज्ञासे दुःशासनके द्वारा राजानोंकी सभाके बीच में द्रौपदीके केश और वस्त्रोंके हाथसे खींचे जानेपर [ मैं तुम्हारी गौ हूँ मेरी रक्षा करो इस प्रकार अनेक बार] द्रौपदीसे गौ-गौ [ये दीनतापूर्ण शब्द ] कहलवा लिए। [ द्रौपदी गौ-गौ कहकर चिल्लाती रही] उस समय क्या गाण्डीवधारी अर्जुन नहीं था ? अथवा क्षत्रियवंश में उत्पन्न हुए मनस्वी युवकके लिए क्या वह [अपनी पत्नीका ऐसा घोर अपना ] लज्जा जनक नहीं था ? ] यहाँ [ प्रर्जुनके] धनुर्धरत्व श्रादि गुणोंको दोष बना दिया है । श्रथवा जैसे नलविलास में राजा - प्रपने भीतरी परिजनोंके अपराधके कारण तुमको उलाहना मिल रहा है। दमयन्ती - - कैसे ? राजा - [मेरे प्रानेपर तुम्हारा ] मुखचन्द्र मुस्कराने लगा, दोनों नेत्र [विकासको प्राप्त हो गए ] खिल उठे, बाहुनोंमें रोमाञ्च हो श्राया और वाणी भारी हो गई । इस प्रकार क्या तुम्हारे श्रङ्गोंने अपनी-अपनी क्षमता के अनुरूप मेरा आतिथ्य या स्वागत नहीं किया ? [ अर्थात् मेरे आनेपर तुम्हारे अन्य सारे श्रङ्गोंने मेरा स्वागत किया] किन्तु मेरे श्राने पर भी यह तुम्हारा स्तन युगल अपनी स्वब्धता] प्रर्थात् कठोरता [ और दूसरे पक्षमें जड़ता ] को नहीं छोड़ रहा है । यहाँ स्तब्धता [ कठोरता ] स्तनोंका गुण है किन्तु उसको दोष बना दिया है । १ काण्डिववरो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy