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________________ २३८ ] नाट्यदर्पणम् [ का० ८६-६०, सू० १३७-१३८ अथ कृत्यशेषमुपदिशति[सूत्र १३७] -निर्वेदवाचो भूम्नात्र योषितां परिदेवितम् । नरा निवृत्तसंग्रामाश्चेष्टाश्चित्रा विसंस्थुलाः ॥[२४]८६॥ अत्र उत्सृष्टिकाङ्के यासु श्रुतासु निर्वेदो जायते, ता निवेदवाचो बाहुल्येन निबन्धनीयाः । देवोपालम्भ-आत्मनिन्दादिरूपानुशोचनात्मक परिदेवितं च योपितां बहुधा वर्णनीयम् । पुमांसश्चोपरतोंद्धतप्रहार-बध-बन्ध-ताडनादिरूपसंग्रामाः पात्रत्वेन नियोज्याः। भूमिनिपात-विवर्तितोरः शिरस्ताडन-स्वकेशवोटनादिका नानाप्रकाराश्चेष्टा विसंस्थुला दर्शनीयाः। अत्र चोत्सृष्किाङ्के उत्तमानां मध्यमानां च बहुविधव्यसनपातेन वैरस्यादितानां महाविपद्यपि अविपादिनां स्थिराणां च पुनरुन्नतिदृश्यते इत्यविषादं चित्तस्थैर्य च विधातु स्त्रीपरिदेवितबहुलं वृत्तं व्युत्पाद्यत इति ॥ [२४] ८६ ॥ अथेहामृगस्य लक्षणप्रपञ्चे पयोय :[सूत्र १३८] -ईहामृगः सवीथ्यङ्गो दिव्येशो दृप्तमानवः । एकाङ्कश्चतुरङ्को वा ख्याताख्यातेतिवृत्तवान् ॥ [२५] ६०॥ अब [उत्सृष्टिकाङ्कमें] करने योग्य अन्य बातोंका निर्देश करते हैं--- [सूत्र १३७]- इसमें मुख्य रूपसे स्त्रियोंके विलाप तथा [संसारकी अनित्यता दुःखमयत्वादिके प्रतिपादन द्वारा] वैराग्यको जनक बातोंका वर्णन करना चाहिए। पुरुषों को संग्रामसे निवृत्ति और [भूपतन उरस्ताउन केशत्रोटनादि रूप] नाना प्रकारको विशृङ्खल चेष्टाएँ प्रदर्शित करनी चाहिए-॥ [२४] ८६|| ___ उत्सृष्टिकाङ्कमें जिन,[बातों] के सुननेसे वैराग्य उत्पन्न होता है इस प्रकारको वैराग्यजनक बातें निबद्ध करनी चाहिए । देवको उपालम्भ देना, आत्मनिन्दा, और अनुशोचन रूप स्त्रियोंका विलाप, प्रचुर मात्रामें वर्णन करना चाहिए। और पुरुषोंको उद्धत प्रहार बध, बन्ध, ताडन प्रादि रूप संग्राम व्यापारोंसे उपरत पात्रके रूपमें दिखलाना चाहिए। भूमिपर लोटना, छाती पीटना, सिर फोड़ना, बाल नोचना, प्रादि नाना प्रकारको विशृङ्खल चेष्टाएँ [स्त्रियोंको] दिखलानी चाहिए । इस उत्सृष्टिकाङ्कमें नाना प्रकारको प्रापत्तियोंके आ पड़नेसे, दुःखोंसे पीड़ित, किन्तु महान् विपत्तिकालमें भी न घबड़ाने वाले, एवं स्थिर रहने वाले, उत्तम तथा मध्यमलोगोंको फिर दुबारा उन्नति होती है इसलिए [मनुष्यको दुःखमें पड़ जानेपर भी] घबड़ाना नहीं चाहिए तथा चित्तको स्थिर रखना चाहिए इस बातको शिक्षा देने के लिए [अथवा विपत्तिग्रस्त पुरुषोंको धैर्य तथा उत्साह प्रदान करने के लिए] स्त्रियोंके विलापादिसे पूर्ण कथा प्रस्तुत की जाती है । [२४] ८६ ।। ११ एकादश रूपक भेद 'ईहामृग' का लक्षण - अब 'ईहामृग' के लक्षण प्रादि करनेका अवसर [प्रास] है [सू० १३८] ---वीथ्यङ्गोंसे युक्त, दिव्य नायक, तथा दृत मानवपात्रों वाला, एक मङ्क: अथवा चार प्रङ्कों वाला, प्रसिद्ध अथवा अप्रसिद्ध कथापर प्राश्रित-[२५] ६० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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