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________________ का० ८८, सू० १३६ ] द्वितीयो विवेकः [ २३७ उत्क्रमणोन्मुखा सृष्टिर्जीवितं यासां ता उत्सृष्टिकाः, शोचन्त्यः स्त्रियः । ताभिरङ्कितत्वाद् 'उत्सृष्टिकाङ्कः' । पुमांसो मा अत्र स्वामिनो, न दिव्या दुःखात्मकस्य करुणरसस्यात्र प्राधान्यात् । दिव्यानां च सुखबाहुल्येन तत्सम्बन्धायोगात् । ख्यातं भारतादौ प्रसिद्धं यद् युद्धं तत्र सम्भवि, करुणरसबहुलं यद् वृत्तं तत्, स्वयं प्रसिद्धं वाऽसदत्र निबन्धनीयम् । भाणप्रतिपादितं मुख-निर्वहणाख्यसन्धिद्वयम् । परिदेवितबाहुल्यान्मुख्या भारती वृत्तिः । एकाहनिवर्तनीयचरितत्वादेकाङ्कश्चात्र कर्तव्यः। शौर्यादिमदावलिप्तानां परस्परं दोषोद्घट्टनं वाग्युद्धं, तदहुलः । मत्वर्थीयेनो भूम्न्यत्र विधानात् । वाग्युद्ध चानुशोचनपरायणानामिति रौद्राप्रवेशेन न करुणस्याङ्गित्वव्याघातः । करुणो रसोऽङ्गी प्रधान बाहुल्यनिबन्धनादत्र विधेयः । ख्यातयुद्धोत्थवृत्ते ध-बन्धादिसद्भावेनेष्टवियोगादिप्राचुर्यादिति ।। [२३] ८८॥ वाला, भारणमें कहे हुए [मुख तथा निर्वहण रूप दो] सन्धियों, [भारती] वृत्ति तथा [एक अङ्कसे युक्त, करुणरस-प्रधान, वाग्युद्ध प्रदर्शक, [रूपकभे] उत्सृष्टिकाङ्क [कहलाता है ।। [२३] ८८॥ इस कारिकाको व्याख्या प्रारम्भ करनेसे पहले ग्रन्थकार 'उत्सृष्टिकाङ्क' पदका निर्वाचन दिखलाते हैं जिनकी सृष्टि अर्थात् जीवन उत्क्रमणोन्मुख है इस प्रकारको शोकग्रस्त स्त्रियाँ 'उत्सृष्टिका' [कहलाती है] उनसे अङ्कित [अर्थात् उनको चर्चा करने वाला रूपकभेद] उत्सृष्टिकाङ्क [कहलाता है। 'स्वामी' कहनेसे इसमें पुरुष अर्थात् मर्त्य ही नायक होते हैं। दुःखात्मक करुणरसकी प्रधानता होनेके कारण [उत्सृष्टिकाङ्कमें] दिव्य नायक नहीं होते हैं। क्योंकि दिव्यजनोंके सुखप्रधान होनेसे उनके साथ उस [दुःखात्मक करुणरस] का सम्बन्ध नहीं होता है [अतः इसमें दिव्य नायक नहीं होते हैं] । 'ख्यात' अर्थात् महाभारत प्राविमें प्रसिद्ध जो युद्ध, उसमें होने वाले करुणरससे परिपूर्ण जो पाख्यान-वस्तु, अथवा [महाभारतादिके अाधारके बिना] स्वयं प्रसिद्ध जो विद्यमान या अविद्यमान पाख्यान-वस्तु, उसकी रचना इसमें करनी चाहिए। भागमें प्रतिपादित मुख तथा निर्वहरण नामक दो सन्धि, विलाप आदिका बाहुल्य होनेसे भारती मुख्य वृत्ति, तथा एक दिन में समाप्य चरित वाला होनेसे एक अङ्क इसमें रखना चाहिए। शौर्य आदिके मदसे मत्त जनोंका एक-दूसरेपर दोषारोपण वाग्युद्ध [कहलाता है। उसका बाहुल्य [इस उत्सृष्टिकाङ्कमें होता है। यहाँ मत्वर्थीय प्रत्ययके बाहुल्यार्थमें विहित होनेसे [वाग्युद्धः का अर्थ वाग्युखबहुल: करनाचाहिए । और यह वाग्युद्ध अनुशोधनपरायण जनोंका है इसलिए [वाग्युद्ध में युद्ध पदके होनेसे] रौद्र का प्रवेश नहीं होता है इसलिए करुणरसको प्रधानताका व्याघात भी नहीं होता है [अर्थात् उत्सृष्टिकाङ्कमें अनुशोचनपरायण स्त्रियोंका वाग्युद्ध होनेपर भी उसमें रौद्ररस नहीं अपितु करुणरस ही प्रधान रहता है । इसमें अधिकांशमें वरिणत करके करुणरस ही प्रधान रूपसे निवड करना चाहिए। प्रसिद्ध युद्धात्मक इतिवृत्तमें बध-बन्धदिके होनेसे इष्ट-वियोगादिका प्राचर्य होनेके कारण [करुणरस ही उत्सृष्टिकाङ्कका प्रधानरस होता है] ॥ [२३] ८६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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