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नाट्यदर्पणम् [ का०८८, सू० १३६ 'अत्र' डिमे उल्कापात-निर्घात-चन्द्रसूर्य परिवेषाः । उपलक्षणपरत्वाच्चास्य लेप्यकिलिञ्ज-चर्म-वस्त्र-काष्ठकृतानि रूपाणि च प्रदर्श्यन्ते । 'सुरासुर' इत्याद्यशब्दाद् यक्षराक्षसभुजगेन्द्रादिग्रहः । प्रायोग्रहणात् न्यूनाधिकत्वेऽपि न दोषः । दिव्यानामुद्धतत्वाद् धीराद्धता एते द्रष्टव्याः। स्वजात्यपेक्षया तु धीरोदात्तत्वमपि न विरुध्यते । एषां च परस्परविभिन्ना भावाः स्थायि-व्यभिचार्यादयोऽपि वर्णनीयाः। समवकारवत् तत्तद् देवताभक्तप्रीतिकार्यत्वाद् दिव्यनायकत्वं दिव्यचरितानुष्ठानव्युत्पत्तिश्च द्रष्टव्या। एवमीहामृगेऽपि ॥ [२०] ८७॥
अथ क्रमप्राप्तमुत्सृष्टिकाङ्क निरूपयति[सूत्र १३६] -उत्सृष्टिकाङ्कः पुंस्वामी ख्यातयुद्धोत्थवृत्तवान् ।
भारणोक्तवृत्तिसन्ध्यङ्को वाग्युद्धः करुणाङ्गिकः ॥ [२३] ८८॥ प्रकारके नायक होते हैं । [२२] ८७ ।
इस [डिममें | उल्कापात, भूकम्प, सूर्यग्रहण, चन्द्रोपराग और इनके उपलक्षणमात्र होनेसे [इनके सदृश लेप्य [अर्थात् प्लास्टर करने योग्य द्रव्यसे बनी हुई] अथवा किलिज [अर्थात् हरी चटाई अथवा पतले तस्तैसे बनी हुई] चर्मसे, वस्त्रसे तथा काष्ठसे बनी हुई प्रतिमानों आदि [रूपों को दिखलाया जाता है। [कारिकामें पाए हुए सुरासुरपिशाचाद्या: पदमें] 'प्राध' शब्दसे यक्ष, राक्षस, भुजगेन्द्र, प्रादिका ग्रहण करना चाहिए। ['प्रायः षोडशनायका.' में] 'प्रायः' पदसे यह सूचित होता है कि कभी-कभी इससे अधिक या कम होनेपर भी दोष नहीं है। [अर्थात् साधारणतः डिममें सोलह नायक होते हैं, किन्तु कभी-कभी इस संख्यामें न्यूना धिक्य हो जानेपर भी कोई दोष नहीं होता है । दिव्यजनोंके उद्धत होनेसे ये [डिमके सोलहों नायक धीरोद्धत समझने चाहिए। [मनुष्योंको अपेक्षासे ही ये धीरोद्धत कहे गए हैं] अपनी जातिको अपेक्षासे तो इनका धीरोदात्तत्व भी विरुद्ध नहीं है [अर्थात् अपनी जातिकी अपेक्षासे तो वे धीरोदात्त भी कहे जा सकते हैं ] । इन [सोलहों नायकोंके के स्थायिभाव व्याभिचारिभाव प्रादि भी परस्पर पृथक्-पृथक् ही वर्णन करने चाहिए। समवकारके समान उन-उन देवताओं के भक्तोंके प्रति उपकारी [प्रानन्ददायक] होनेसे [डिममें भी] दिव्य नायक होते हैं और दिव्य चरितके अनुष्ठानका परिज्ञान [रूप उसका फल] समझना चाहिए। इसी प्रकार 'ईहामृग' में भी [दिव्य नायकोंकी स्थितिका समर्थन समझना चाहिए ।
समवकारमें तीन अङ्कोंमें बारहं नायक दिखलाए थे। प्रत्येक अङ्कमें नायक, प्रतिनायक और उनके दो सहायक इस प्रकार चार नायकोंके होने से तीन प्रकोंके समवकारमें कुल मिलाकर बारह नायक माने थे। इसी प्रकार चार प्रकों वाले डिमके प्रत्येक मङ्कमें चार-चार नायक होने से कुल मिलाकर सोलह नायक माने गए हैं। इन सबके विभाव अनुभाव पोर फल आदि पृथक्-पृथक् ही वर्णन करने चाहिए। १०. दशम रूपक भेद 'उत्सृष्टिकाङ्क' का लक्षण
प्रत्र क्रमसे प्राप्त उत्सृष्टिकाका निरूपण करते हैं
सूत्र १३६] ['डिम' और 'समयकार' में दिव्य नायक कहे गए थे उनके विपरीत] पुरुष नायक वाला, प्रसिद्ध युद्धसे जन्य [प्रर्थात् प्रसिद्ध युरोपाख्यानपर प्राधारित कथावस्तु
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