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का०८७, सू० १३५ ] द्वितीयो विवेकः
[ २३५ पूर्वप्रसिद्धं वस्त्वितिवृत्तं नायकोपायफललक्षणमत्र । रौद्रो मुख्योऽङ्गी यत्र । शेषा रसाः पुनरंगानि । अवस्थाचतुष्टयविशिष्टः चतुःसन्धित्वेन चतुदिननिवर्तनीयेतिवृत्तत्वेन च चतुरङ्कवान् । अङ्कावताररूपाश्चात्र अङ्का विधेयाः । चूलिकाङ्कमुखयोरपि युद्धादिवर्णने निबन्धो भवत्येव । 'सेन्द्र' इति सहेन्द्रजाल-रणाभ्यां वर्तते । विद्यमानता चात्र सहार्थः। इन्द्रजालमसतां शब्द-रूपादोनां प्रकाशनम् । अन्यथापादनं वा। रणः संग्रामः, बाहुयुद्ध-बलात्कारपराभवादिरूपः। डिमो डिम्बो विप्लव इत्यर्थः । तद्योगादयं डिमः । डिमेः संघातार्थत्वादिति ॥ [२१] ८६ ।
अथ कृत्यान्तरं नायकं चोपदिशिति[सूत्र १३५] -अत्रोल्कापात-निर्घाताश्चन्द्रसूर्योपरक्तयः ।
.. सुरासुरपिशाचाद्याः प्रायः षोडश नायकाः॥[२२] ८७॥ है। [लक्षरणमें पाए हुए 'ल्यातवस्तुकः' पदका अर्थ करते हैं कि जिसमें नायक, फल, तथा उपाय रूप अर्थ 'वस्तु' अर्थात् इतिवृत्त ख्यात अर्थात् पूर्व-प्रसिद्ध है। [इस प्रकारका डिम होना चाहिए। रोदरस जिसमें प्रङ्गी अर्थात् प्रधानरस है। शेष रस अङ्ग अर्थात् प्रप्रधान होते हैं। [विमर्शसन्धि-रहित कहनेसे शेष] चार सन्धियों वाला होनेके कारण चार प्रवस्थानोंसे युक्त, तथा चार दिनोंमें सम्पादित कथा-भाग वाला होनेसे चार अंकोंसे युक्त [रिम को कहा गया है । इसमें अङ्गोंकी रचना अंकावतारके रूपमें करनी चाहिए [अंकावतारका लक्षण 'सोऽङ्कावतारो यत् पात्र रडान्तरमसूचनम्' यह २७वीं कारिकामें किया जा चुका है। इसके अनुसार पूर्व अङ्कके पात्रों द्वारा ही बिना किसी अन्य सूचनाके नवीन अजूका प्रारम्भ होता है उसको प्रावतार कहते हैं। डिमके प्रकोंकी रचना इसी प्रकारसे करनी चाहिए यह प्रत्यकारका अभिप्राय है। अर्थात् डिमके प्रकों में प्रथम अङ्कके पात्रों द्वारा ही द्वितीय अङ्क प्रादिका प्रारम्भ होना चाहिए। और उसमें विष्कम्भक प्रवेशक प्रादि अर्थोपक्षेपकोंका प्रयोग नहीं करना चाहिए। किन्तु युद्धादिके वर्णनमें चूलिका तथा प्रमुख दोनों [प्रोपलेपकों का प्रयोग होता ही है। [विष्कम्भक प्रवेशक प्रादिका प्रयोग नहीं होता है] । 'सेन्द्रजालरणो डिमः' इसका अर्थ यह है कि इन्द्रजाल और युद्धसे युक्त हो । यहाँ 'सह' पदका अर्थ विधमानता है। [अर्थात् सेन्द्रजालमें सहार्थक 'स' माया है उससे इन्द्रजाल और युटकी डिममें विद्यमानता सूचित होती है। अविद्यमान शब्द और रूपादिको प्रकाशित करना 'इन्द्रनाल' [कहलाता है। बाहुयुद्ध, बलात्कार पराभवादि रूप संग्राम रण [शब्दका अर्थ है। डिम अर्थात् डिम्ब या विप्लव 'डिम' शब्दका मुख्य अर्थ है उसके योगसे [रूपकभेदका नाम] डिम है। "डिम' धातुके संघातार्थका होनेसे [विप्लवादिप्रधान रूपकभेद डिम कहलाता है। यह डिम शब्दका निर्वचन है। यह ग्रन्थकारका अभिप्राय है] ॥ [२१] ८६ ॥
अब [डिममें] करने योग्य अन्य बातोंका, और नायकका निर्देश करते हैं
[सूत्र १३५]--इस [डिम] में उल्कापात, भूकम्प, चन्द्रमा और सूर्यके उपराग [अर्थात् प्रहरण अथवा परिवेष] दिखलाए जाने चाहिए। [सूर्य तथा चन्द्रमाके चारों ओर कभी-कभी एक गोल घेरा दिखलाई देता है इसीको 'परिवेष' कहते हैं] सुर. प्रतुर, पिशाच प्रादि प्रायः सोलह
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