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नाट्यदर्पणम् । का०८६, सू० १३४ इह च करुण-रौद्र-भयानक-बीभत्साश्चत्वारो रसा दुःखात्मानः । शृङ्गार-हास्यवीर-अद्भुत-शान्ताः पञ्च सुखात्मकाः। दिव्यानां च सुखबाहुल्येनाल्पदुःखत्वादन्यथा दिव्यत्वमेव न स्यादित्येषां तत्प्रभावानानुगृहीतानामन्येषां च दुःखात्मानोरसा अप्रयोज्या एव । समवकारादौ तु यद् रौद्रादिवर्णनं तद् दिव्यहेतुकस्वाभाविकसुखाबाधकत्वाददुष्टमेव । माधवज्ञादिसमुत्थो हि रौद्रः। स्वाधिकक्रोधादिसम्भवो भयानकः । माद्यशुचिशरीराधवलोकनाद् बीभत्सश्च दिव्यानामागन्तुक एव। करुणः पुनरिष्टवियोगप्रभवशोकप्रकर्षरूपत्वात् स्वाभाविकसुखपरिपन्थी सर्वदेषामवर्णनीय एव । शान्तोऽपि विषयासक्तिमत्त्वादसम्भव्येव ।।
__अत्र च डिमे हास्य-शृङ्गारवर्जनमिन्द्रजालादिबहुलत्वादुचितमेवेति । ख्यातं रूपसे उपलक्षण होनेके कारण [शान्त परसे हो] कतरणरसका भी निषेध किया गया है [यह समझना चाहिए । [कतरणरसके दुःखप्रकर्षात्मक होनेसे।
रसोंकी सुख दुःखात्मकता
करुणरसकी दुःखात्मताके कथनके प्रसंगसे रसोंके सुःखात्मक तथा दुखात्मक द्विविध विभागको दिखलाते हैं
यहाँ कहरण, रौद्र, भयानक और बीभत्स ये चार रस दुःखात्मक रस हैं। शृङ्गार, हास्य, वीर, अद्भुत और शान्त ये पांच रस सुखात्मक रस है। दिव्य पात्रोंमें सुखप्रधान होनेके कारण उनमें दुःखको न्यूनता होनेसे, अन्यथा [अर्थात् यदि उनमें सुखकी प्रधानता न मानी जाय तो] उनमें दिव्यता ही नहीं बनेगी। इसलिए इन देिवताओं] और उनके प्रभावसे अनुगृहीत अन्यों [अर्थात् उनके भक्तगणों के साथ दु.खात्मक रसोंका प्रयोग नहीं करना चाहिए । इसपर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि दिव्य पात्रोंके साथ दुःखप्रधान रसोंके प्रयोगका निषेध किया जाता है तो रौद्ररस-प्रधान समवकारमें दिव्य पात्रोंकी संगति कसे लगेगी इस शंकाका उत्तर प्रागे देते हैं कि समवकारादिमें [दिव्य पात्रोंके होते हुए भी जो रौद्र रसका वर्णन कहा गया है वह [उन पात्रोंके] दिव्यता-जन्य स्वाभाविक सुखका बाधक न होनेसे दोषाधायक नहीं है। [मागे विभिन्न रसोंके कारण तथा स्वरूपका उपपादन प्रसंगतः करते हैं] मनुष्य प्रादिके द्वारा की जाने वाली अवज्ञा प्रादिसे रौद्र [रसका स्थायिभाव क्रोध] उत्पन्न होता है। अपनेसे अधिक शक्तिशाली पुरुष के क्रोधादिसे भयानक [रसके स्थायिभाव भय] की उत्पत्ति होती है । और मनुष्यादिके अपवित्र शरीर प्रादिके अवलोकनसे बीभत्स [रसका स्थायिभाव जुगुप्सा] दिव्य पात्रोंमें [वास्तविक नहीं] प्रागन्तुक ही होता है । अर्थात् दुःखात्मक रौद्र भयानक और बीभत्सरसोंका देवताओंके साथ वर्णन आगन्तुक रूपमें ही किया जा सकता है । वास्तविक रूपसे नहीं। करुणरसका वर्णन तो उनके साथ किसी भी रूपमें नहीं करना चाहिए इस बातको आगे कहते हैं] किन्तु प्रियजनके वियोगसे उत्पन्न शोकके प्रकर्ष रूप होनेके कारण स्वाभाविक सुखके विरोधी करुण रसका इन देवताओं के साथ कभी भी वर्णन नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार [देवताओंके] विषयासक्ति-प्रधान होनेके कारण उनमें शान्तरस भी असम्भव ही है [अर्थात् देवतानोंके चरितमें शान्तरसका भी वर्णन नहीं करना चाहिए ।
यहाँ 'डिम' में इन्द्रजालादिका बाहुल्य होनेसे हास्य तथा शृङ्गारका वर्जन उचित ही
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