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________________ का०८६, सू० १३४ ] द्वितीयो विवेकः [ २३३ अन्ये तु–स्वभावशुद्ध-पाखण्ड्यादेश्वरित प्रहस्यते तत् सङ्कीर्णचरितविषयत्वात् सङ्कीर्णमित्याहुः । सङ्कीर्णमनेकाङ्क केचिद्नुस्मरन्ति । अत्र च प्रथमेन श्लोकेन सामान्यलक्षणम् । द्वितीयेन शुद्धस्य, तृतीयेन च सङ्कीर्णस्य लक्षणम् । उभयत्र तु विट-चेट्यादेः परिजनस्य भूयस्त्वमिति । प्रहसनेन च बाल-स्त्री-मृर्खाणां हास्यप्रदर्शनेन नाटये प्ररोचना क्रियते । ततः सञ्जातनाट्यरुचयः शेषरूपकै-धर्मार्थकामेषु व्युत्पाद्यन्ते । तथा वृत्तच्युतस्य पाखण्डिप्रभृतेर्वत्तं शुद्धं, बन्धक्यादेश्व, धूर्तादिसंकुलं संकीर्णं वृत्तं त्याज्यतया व्युत्पाद्यते इति ॥ [२०] ८५॥ अथ डिमस्य लक्षणक्रमः[सूत्र १३४]-प्रशान्त-हास्य-शृङ्गार-विमर्शः ख्यातवस्तुकः । - रौद्रमुख्यश्चतुरङ्कः सेन्द्रजाल-रणो डिमः ॥ [२१] ८६ ॥ शान्त-हास्य-शृगाररूपरसत्रयेण विमर्शाख्यचतुर्थसन्धिना च रहितत्वात् शेषरसैरन्यसन्धिभिश्च युक्तः । शान्तस्य करुणहेतुकत्वेनोपलक्षणत्वात् करुणोऽपि निषिध्यते दुःखप्रकर्षात्मकत्वात् । सङ्कीर्ण प्रहसनका दूसरा लक्षण अन्य लोग तो-स्वविशुद्ध [अर्थात् पवित्र आचारवाले होनेपर भी पाखण्डी प्रावि [अर्थात् अन्य धर्मोके अनुयायी ब्राह्मणादि] के चरितका जिसमें उपहास किया जाता है वह चरितका सङ्कर [शुद्ध चरितमें अशुद्धता का विषय होनेसे संकीर्ण [प्रहसन] होता है यह कहते हैं । कुछ लोगोंका कहना यह है कि संकोणं [प्रहसन] अनेक अडों वाला होता है । [और शुद्ध प्रहसनमें केवल एक अङ्क होता है यह उन दोनोंका भेद है । प्रहसनके लक्षरणमें ८३-८५ तक तीन श्लोक पाए हैं] इनमें से प्रथम श्लोकसे [प्रहसनका] सामान्य लक्षण, द्वितीयसे शुद्धका लक्षण, तथा तृतीय श्लोकसे संकीर्ण. [प्रहसन का लक्षण किया गया है। शुद्ध तथा संकीर्ण] दोनोंमें विट, चेट प्रावि परिजनोंका बाहुल्य रहता है। प्रहसनके द्वारा हास्य प्रदर्शित करके मूों और स्त्रियोंकी नाध्यके विषय में अभिरुचि उत्पन्न की जाती है। उससे नाटकके विषयमें रुचि हो जानेपर शेष रूपकभेदोंके द्वारा उनको धर्म, अर्थ और काम की शिक्षा प्रदान की जाती है। और साथ ही प्राचारहीन पाखण्डी मावि [किसी एक का शुद्ध वृत्त तथा धूर्तादिसे व्याप्त बन्धकी प्रादिका संकीर्ण चरित त्याज्य रूपसे दिखलाया जाता है। [वह प्रहसनकी उपयोगिता है] ॥ [२०] ८५॥ ६ नवम रूपक भेद 'डिम' का लक्षण [प्रहसनके लक्षणके बाद प्रागे] अब 'डिम' के लक्षणका अवसर प्राप्त है-[प्रतः 'डिम' का लक्षरण करते हैं] [सूत्र १३४] —शान्त, शृङ्गार और हास्य रसों सहित, विमर्श सन्धि-विहीन, प्रसिद्ध पाख्यानवस्तु वाला, तथा रौद्र रस-प्रधान, इन्द्रजाल एवं युद्धादिसे परिपूर्ण चार अंकों वाला [रूपकभेव] 'डिम' [कहलाता है । [२१] ८६ ॥ शान्त, शृङ्गार और हास्य रूप तीन रसोंसे, तथा विमर्श नामक चतुर्थ सन्धिसे रहित होनेसे अन्य रसों तथा सन्धियोंसे सुक्त [डिम होता है] । शान्त रसके [यहाँ] कवरण-जन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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